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________________ ही राम की आँख खुल गयी। उन्होंने सरकण्डे का बाण साधा। कौआ तेज़ी से उड़ चला लेकिन बाण ने पीछा नहीं छोड़ा। अपने प्राण जाते देख वह बहुत डर गया। तब राम को दया आ गयी। उन्होंने कौए का वध न कर उसकी केवल एक आँख फोड़ डाली । उस दिन से कौआ एक आँख से ही देख पाता है ।" रूपनारायण के मन में यह कहानी बैठ गयी । राम-सीता को मन्दाकिनी के तट पर विहार करते समय बाधा उपस्थित करनेवाला यह कौवा प्रेमियों की आँख का सदा काँटा बना रहा है । टिकौ ने कहा : "कौवे ने चोंच मारकर सीता के स्तन को घायल कर दिया था, पर प्रभु रामचन्द्र के हाथों का कोमल स्पर्श पा वह घाव भर गया ।" रूपनारायण के मन का जाल छिन्नविच्छिन्न हो गया । उसे भी स्मरण हो आया यौवन से भरे एक जोड़े का : स्वयं उसे प्यार करनेवाली युवती का | सोनाई के तट पर अगर वह दूल्हा तथा वह युवती उसकी दुलहिन, यानी वर-वधू बनकर आते तो दोनों को कितना आनन्द होता ! बीड़ी का टुकड़ा फेंक वह नाव से उतरने के लिए तैयार हुआ । टिकौ ने नाव को रोककर बालू में लगा दिया। पहले रूपनारायण उतरा और उसके बाद टिको । सोनाई का यह किनारा धूल भरा था। वहाँ से एक पगडण्डी जंगल की ओर चली गयी थी । उसीसे वे दीघली आटि की तरफ़ बढ़ चले। सहसा रूपनारायण ने पूछा : "कैम्प में जाने पर आदमी मिलेंगे ?” "हाँ मिलेंगे ।" वे 'चुपचाप आगे बढ़ते रहे । कुछ दूर आगे जाने पर वे बायीं ओर मुड़ गये । अचानक थोड़ी दूरी पर रोशनी देखकर टिकौ सजग हो गया । बोला : "अरे, इधर तो रोशनी दिखलाई पड़ रही है। ज़रा मैं छिपकर देख आता हूँ, बात क्या है । तब तक तू यहीं बैठ ।" "तेरे अकेले जाने से क्या होगा टिको, मैं भी साथ चलता हूँ। तेरे हाथ में कुछ भी तो नहीं है । दाव को भी तो फेंक आये ।" रूपनारायण ने कहा : टिको धीरे से बोला : "यह बुद्धिमानी का काम नहीं होगा । गीदड़ की तरह ही मैं इस अंचल के चप्पे-चप्पे से परिचित हूँ, समझे न । तू इस पेड़ तले ही थोड़ा आराम कर । मैं अभी लौटकर आया। मुझे तो संदेह हो रहा है । लगता है, ये हमारे आदमी नहीं हैं । हमारे यहाँ से जाने के बाद आये हैं ये । यानी अब यहाँ भी काम तमाम हो गया । और तुम्हें मालूम है ?" 1 "क्या ?" मृत्युंजय / 217
SR No.090552
Book TitleMrutyunjaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBirendrakumar Bhattacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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