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लिया ।"
रूपनारायण ने हँसते हुए पूछा :
"अच्छा बताओ तो भला, उसे कैसे दबोच लिया ? कोई फ़ायदा भी हुआ ?" "नहीं। फ़ायदा क्या होता ? बस, बहुत देर तक वह बक बक करता रहा । " " तुमने उससे कुछ कहा था क्या ?"
"कई बार । पर कुछ फायदा नहीं हुआ । वह कुछ समझता ही नहीं !" "हूँ ।"
रूपनारायण का मन फिर कुछ भारी-भारी-सा हो गया : सर्वेश्वर वैसे गुणवान् लड़का है । लेकिन अवसर होते हुए भी देश की स्वाधीनता के लिए वह कुछ नहीं करना चाहता । इस भूल के लिए वह जीवन भर पछतायेगा ।
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टिको अनवरत बोलता ही जा रहा था । मानो वह चलता-फिरता एक महाभारत बन गया था । रूपनारायण के मन में धीरे-धीरे अनिश्चित भविष्य की एक धुंधली छायातिरने लगी थी । उसकी तरह सर्वेश्वर भी यह कह सकता था कि रूपनारायण के ग़लत रास्ते पर भटक जाने से उसे दुःख होता है । पर उसका वैसा सोचना ही ग़लत है। युद्ध में हार-जीत तो होती ही रहती है । हारकर जीतना या जीतकर भी हार जाना - यही तो चिरन्तन रीति है । यह जरूरी नहीं कि रूस के लिए जो जनयुद्ध ठीक है, वह भारत के लिए भी उचित हो । वह समझ नहीं पाता कि युद्ध में अंगरेज़ों की सहायता क्यों की जाये | अंगरेज़ों ने हमें स्वाधीनता भी तो नहीं दी । देने के लिए कोई वादा भी नहीं किया है । अंगरेज़ों से जापान या जर्मनी वालों में क्या अन्तर है ? एक न एक दिन सर्वेश्वर वगैरह सभी अपनी भूल अवश्य स्वीकार करेंगे ।
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वे सोनाई के तट पर पहुँच गये । नदी पार करने के लिए टिको एक नाव खोजने चल दिया । तब तक नदी में उतरकर रूपनारायण ने भी अँजुरी भरकर सोनाई का अमृत जैसा पानी पी लिया । पेट की भूख थोड़ी शान्त सी हो गयी । पान तो था नहीं इसलिए उसने एक बीड़ी ही सुलगा ली। नाव के आते ही वह उस पर जा बैठा । उसकी देह पर सात दिनों की धूल-मिट्टी जमी हुई थी। नहाने का समय भी कहाँ मिला था ? पानी देखकर उसका स्नान को जी करने लगा । पता नहीं सोनाई में स्नान करने का फिर कभी अवसर मिलेगा ! कहा जाता है। कि सोनाई के पानी में कई देवी-देवता निवास करते हैं। एक हैं जलेश्वर । एक है जलदेवी । और भी - जलकुँवर, जलगिरि, मछन्दरी - बहुतों के नाम उसने बचपन से ही सुन रखे थे। ऐसा विश्वास है कि वे सब मछुओं, नाव डुबानेवालों और नदी पार करने वालों को बहुत परेशान करते हैं । उन देवताओं के बारे में सोचने पर अब उसे बड़ी हँसी आती । लेकिन इस अंचल में सोनाई यहाँ के गणदेवता की प्रिया के रूप में मान्य है । नहीं तो इसका नाम सोनाई क्यों होता ! आन्दोलन
मृत्युंजय | 215