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________________ कैसे समझाती । धनपुर अगर सुभद्रा की खोज करता तो डिभि क्या बहाना बनाती ! नहीं-नहीं, वह आदमी ही कुछ और था। वह उसकी कभी खोज नहीं करता । उसका बाहरी मन शीशे जैसा सख्त था, पर गहराई से झाँकने पर उसका अन्तरंग मृदुल और मिठास भरा लगता था । बस, उसे चूम लेने को जी चाहता था । आग से चट् चट् की आवाज़ और धुएँ की कसैली गन्ध फैल रही थी । मानो बँगला - उत्सव की गन्ध हो । लेकिन इस विपदा में भी वह गन्ध डिमि को नहीं खल रही थी । एक लम्बी साँस छोड़ते हुए उसने अपना सिर ऊपर उठाया और चाँद को देखने लगी । आकाश में चाँद की कला - जैसे धनपुर की लम्बी आँख हो या फिर मन को हर क्षण लुभा लेनेवाली उसकी मुसकराहट हो । जयराम डिमि से यों ही पूछ बैठा : "डिम, तुम धनपुर को बड़ा प्यार करती थीं न ? तुम्हारा घरवाला भी तो है !” fsfe से शइकीया ने भी प्रायः ऐसा ही प्रश्न किया था। ये सब प्रश्न पुरुषों के हैं । उसका मन असमंजस में पड़ गया। वोली : "इन सब बातों का जवाब मुझे नहीं आता । पर एक बात मैं अवश्य जानती हूँ, अच्छी तरह समझती हूँ : हृदय में बँधी तुम्हारी आस, कमर में बँधा हुआ है बल । पैर में बँधे भ्रमर के पंख, भाग्य में बँधा कर्म का फल ||" जयराम को हिम्मत न हुई कि वह डिमि की ओर देखकर बात कर सके । पर-पुरुष को इस तरह चाहकर भी उसका मन तनिक भी विचलित नहीं हुआ । बल्कि इसे वह अच्छा ही मानती आयी । उसके चेहरे पर के भावों को परखने से यही अन्दाज़ होता था । पण्डितों के रचित शास्त्रों से कभी जीवन का सही मूल्यांकन हो सका है ? जीवन तो एक खेल है । जयराम ने खुद ही मस्ती में एक गीत छेड़ दिया : जीवन है इक खेल-तमाशा जीते जी यह खेलूंगा । मर जाऊँ गर इसी बीच तो फिर दुःख सुख क्या झेलूंगा ॥ ... कहा नहीं जा सकता कि आदमी पर कब और किस प्रकार विपत्ति आ जाती है । "घर में आग लगा दी गयी । हमारे आदमी सताये जा रहे हैं, मारे जा रहे हैं। क्या यह सब भी तमाशा है ?" डिमि ने पूछा । "यह सब तमाशा कैसे कहा जा सकता है ? यह सब तो आसुरी वृत्ति है । 208 / मृत्युंजय
SR No.090552
Book TitleMrutyunjaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBirendrakumar Bhattacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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