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________________ तमाशा करने के लिए खुलापन चाहिए। यह तो संकट की घड़ी है । इससे उबरने पर ही तमाशा मनाया जा सकता है।" डिमि आँख मूंदकर कुछ सोचने लगी : बचपन में कामपुर के गोसाईजी के यहाँ उसने आषारिका राक्षसी का किस्सा सुना था । वह बघासुर की माता थी। सागर में रहती थी। सागर के ऊपर से जानेवाले पक्षियों, पुरुषों को वह निगल जाया करती थी। एक दिन हनुमानजी सागर पार कर रहे थे। राक्षसी हनुमानजी पर झपट पड़ी। हनुमानजी भला क्या डरते ! राक्षसी ने मुँह फाड़कर हनुमानजी को निगल जाना चाहा। लेकिन हनुमानजी उसके मुख में प्रविष्ट हो गये और उसका पेट चीर डाला । विधाता ने शायद धनपुर को भी हनुमानजी की तरह ही बनाया होगा । इसीलिए तो वह मरते-मरते अपना खेल दिखा गया। जयराम वहाँ से उठकर धीरे-धीरे चलने लगा। उसके मन में एक नये प्रतिशोध की भावना भड़क उठी। अब वह शइकीया को पकड़कर ही चैन लेगा। गोसाईजी की हत्या का बदला उसे जीते-जी गाड़कर ही चुकाया जा सकेगा। लेकिन धनपुर की हत्या-वह तो मिलिटरीवालों ने की है। मिलिटरीवालों को पकड़ पाना सम्भव नहीं। सभी के चेहरे एक-से हैं। इसलिए जो भी पहले मिल जाय, मार दो। सबकी यही इच्छा है। मधु, दधि-सभी की। केवल आहिना कोंवर ही हाँ-ना कुछ नहीं बोला। भिभिराम और रूपनारायण चुप रहे आये। बड़े भावुक हैं ये। भला दुख की बात वे क्या समझ सकेंगे! उसे विश्वास था कि इस बार उसने स्वयं ही जिस तरह से जाल बिछा रखा है उसमें शइकीया और लयराम अवश्य फंसेंगे। डिमि के कपड़े सूख चले थे। वह भी उठी और उसी ओर धीरे-धीरे क़दम बढ़ाने लगी जहाँ और सभी साथी उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे। मृत्युंजय ! 209
SR No.090552
Book TitleMrutyunjaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBirendrakumar Bhattacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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