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________________ के भीतर उसके सीने की धड़कन तेज होती देख जयराम बोला : "डिमि, तू अपने घर के पास-पड़ोस ही में ठहर जा । आग ताप ले, भोगे कपड़े भी सुखा ले। तब तक मैं एक काम करके आता हूँ ।" "कौन-सा काम ?" डिमि ने पूछा । जयराम गम्भीर हो गया। वोला : "यह सब न ही पूछ तो अच्छा । तू कोई मृत्युवाहिनी में तो है नहीं ।" डिमि हँस दी, “अच्छा नहीं पूछूंगी । पर एक गीत तो सुनता जा ! उन्हीं लड़कों का है यह गीत । सुनते ही मुझे याद हो गया था ।" वह आग से थोड़ी दूर हट गया, लेकिन डिभि वहीं जमी रही। सामने उसी का घर जल रहा था । सब कुछ स्वाहा हो चुका था। घर से सामान निकालने का समय भी चुक गया था । डिमि अपना सब कुछ जलते हुए देख रही थी । तब भी वह निर्विकार भाव से गीत गाने लगी : हे भारतवासी, यह दुःखद समाचार सुनकर भी क्यों बन बैठे लाचार कुटिल गौरांगों ने छोड़ी धर्मनीति आक्रामक दमनचक्र किंचित् नहि प्रीति ये अधर्मी अविवेकी पाखण्डी पिशाच' उच्चारण साफ़-साफ़ न होने पर भी डिभि के स्वर में बड़ी ही सहजता और मिठास थी । जयराम तन्मय हो गया । तन्मय ही नहीं हुआ, बल्कि सारी घटनाएँ भी उसकी आँखों के सामने नाच उठी । आँखों से आँसू झरने लगे । कहीं डिमिन देख ले, इसलिए उसने दूसरी ओर मुँह कर चुपके से आँसू पोंछ लिये । जनता का गीत, जनता के द्वारा रचित गीत ! "क्यों, रो पड़े ? क्या हुआ ? धनपुर होता तो वह कभी नहीं रोता ।" "धनपुर वीर था, डिमि ! हम लोग तो कायर हैं, कायर । नहीं तो स्वाता की इस लड़ाई में इतने दिनों तक बचे कैसे रहते ? सुभद्रा को तो तूने नहीं देखा था न ?” “ऊँहूँ !” " सुभद्रा बहुत पहले ही मरकर भूत बन गयी है ।" इस बार डिम की आँखों में आँसू छलक आये । उसे याद हो आयी, धनपुर की भावी कल्पना | नगाँव की कलङ वह अभी-अभी ही देखकर आयी थी । उसकी धारा क्षीण पड़ गयी थी । किनारे पर के एजार के पेड़ों में फूल-पत्ते नहीं रह गये थे । कहीं-कहीं एक-दो सोवालु, भेलकर और पमा के पेड़ भी दीखे थे । उसकी आत्मा एजार पर अटक रह सकती है। हाय रे विधाता ! सुभद्रा मरकर भूत बन गयी ! डिमि यह निर्णय नहीं कर पायी थी कि धनपुर के लौटने पर वह उसे मृत्युंजय / 207
SR No.090552
Book TitleMrutyunjaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBirendrakumar Bhattacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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