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"डॉक्टर महोदय उसे डिस्ट्रिक्ट हॉस्पिटल पहुंचाने का दायित्व मुझे सौंप गये थे । चिन्ता इस बात की थी कि ले कैसे जाऊँ । उपाय किया सद्भाग्य ने। फूकन महाशय गौहाटी जाने के लिए नौगाँव से आये थे। लौटते समय कॅली दीदी से मिलने आये। सम्बन्ध अच्छे थे। कॅली दीदी के कहने के साथ ही सुभद्रा को डिस्ट्रिक्ट हॉस्पिटल तक पहुँचाने को तैयार हो गये। मुझे भी कार में साथ ले लिया। सुभद्रा को पीछे की सीट पर लिटा दिया और मुझे नीचे बैठ जाने को कहा, जिससे कि पुलिस की आँख न पड़ने पाये। हॉस्पिटल में लेडी डॉक्टर ने परीक्षा करके आवश्यक दवा आदि दी और आश्वस्त किया कि विशेष चिन्ता की बात नहीं है । फूकन महोदय की कार ही हमें वापस भी ले आयी।"
धनपुर ने भिभिराम और माणिक बॅरा की ओर देखते हुए कहा :
"यह फूकन महोदय सचमुच बहुत अच्छा व्यक्ति था। कन्दर्प जैसा चेहरामोहरा । बातचीत के ढंग में भी आभिजात्य । सुभद्रा की चेतना इस बीच लौट आयी थी। बस, लगी फफक-फफककर रोने कि जब विदेशियों ने देह को ही अपवित्र कर दिया तो इसे बनाये ही क्यों रखा जाये ! फूकन जी ने समझाया, 'स्त्री की देह तो मास के मास कलुषमुक्त हो जाया करती है । कलुष जहाँ स्रवित हो गया कि देह फिर पवित्र । यों भी देह का क्या ! आततायी विदेशी तुम्हारी आत्मा को तो स्पर्श नहीं कर सके !' _ “सुभद्रा अविश्वास-भरी आँखों उनकी ओर देखती रही। उसे प्रतीति नहीं पड़ रही थी। गांव का समाज क्या ऐसे तर्कों को कान देगा? फूकन जी ने उसके मन का भाव ताड़कर फिर समझाया, 'देखो सुभद्रा, मेरी बातें तुम्हें अटपटी लग रही हैं। अटपटी लगने का कारण है नहीं। सीता का उद्धार करने के बाद रामचन्द्र उसे मन के सन्देहों के कारण त्याग देना चाहते थे । साधारण मनुष्य की नाईं उन्होंने भी सोचा था कि रावण ने शायद सीता की देह को कलुषित किया हो, इसलिए उसे ग्रहण करना ठीक न होगा। सीता ने तब यही कहा कि रावण ने मेरी देह भले स्पर्श की हो, मेरे हृदय को कभी नहीं; और यह आत्मा तो सदा तुम्हारी ही रही। इन विदेशियों ने भी तुम्हारी देह मात्र का स्पर्श किया है, आत्मा का नहीं । आत्मा अपवित्र होती ही नहीं।' ___"सुभद्रा तड़क-सी उठी, 'किन्तु बारपूजिया के लोग इन बातों को समझेंगे? सीधे से मुझे और माँ को अलग कर देंगे।' फूकन इतना ही कह सके, कि यह तो भारी अन्याय होगा। सुभद्रा पूर्ववत् अपने में खो रही। उसकी देह से वह गन्ध मुझे अब भी आ रही थी । अत्याचार की गन्ध ! एक बार उसने मेरी ओर देखा, फिर मुंह दूसरी ओर कर लिया। कितनी मथी जा रही थी वह भीतरभीतर ! मुझे स्वयं मर जाने जैसा लगा। कितना नृशंस होकर एक गुलाब के फूल को मसला गया था !"
मृत्युंजय | 17