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आधाज़ दी। दारोगा चला गया था। उन्होंने हलवा और चाय दी।"
भिभिराम के मुंह से अचानक निकला, "हां, आइकण दीदी सचमुच ही बड़ी स्नेहालु महिला हैं। और निर्भीक भी।" आगे बोला : "फिर क्या हुआ ?" __ हलकी-सी खखार के साथ धनपुर बताने लगा : __ "चाय पीते-पीते मैं बरामदे में निकल आया था। तभी आइकण दीदी ने बाहर वाले कमरे की तरफ़ से आते हुए बताया, 'तेरे जीजाजी कॅली दीदी के यहाँ गये ! तुझे ठहरने को कह गये हैं। दवा आदि ले जानी होगी।' अचानक पूछा उन्होंने, 'अच्छा, हुआ किसे क्या है रे?' मैं उनका मुंह देखने लगा, 'कहते लाज लगती है दीदी। वे हंस दीं। कितनी सुन्दर थी गोसाईजी की यह पुत्री !"
_"किसी तरह कुछ बताने चला मैं कि एकदम से बोलीं, 'अच्छा-अच्छा, कोई स्त्री लगती है। अत्याचारों की सुनते-सुनते तो कलेजा मुंह को आ गया है।' आन्तरिक व्यथा और आकुलता के मारे उनका चेहरा उतर गया । आखिर स्त्री ही तो थी वे भी!" __ खोया-खोया-सा हठात् धनपुर बोला :
"गला जैसे सूख रहा है भिभि भइया। पता नहीं क्या हुआ है मुझे । तुम्हारे चोंगे में थोड़ा-बहुत दही या दूध है ?"
भिभिराम के पास थोड़ा-सा दही था। गठरी खोलकर उसने चोंगा निकाला और ढकना खोलते हुए धनपुर से अंजलि आगे करने को कहा।
माणिक बॅरा ने अपने गड़ ए से दो चूंट जल पिया और, दही खा चुका धनपुर तो थोड़ा-सा हाथ धोने के लिए उसे दिया। भिभिराम ने चोंगे को केले के पत्ते में लपेटकर अपनी गठरी में यथास्थान रख लिया। तीनों फिर रास्ते पर बढ़ चले।
सूरज धीरे-धीरे पश्चिमी दिगन्त पर पहुँच आया था। धूप की महिमा समाप्त हो रही थी। पर सुनहली किरणों से वनराजि दूर-दूर तक जगमगा उठी थी। रास्ते के दोनों ओर खेतों की नमी सूख चली थी। यहां-वहाँ पेड़ : इक्के-दुक्के नंगे, सूने।
हठात् माणिक बॅरा अपनी उत्सुकता से हारकर पूछ उठा : "तो उसके बाद क्या हुआ ? बची या नहीं सुभद्रा ?" धनपुर बताने लगा :
"हाँ, किसी तरह जान भर बच गयी। कॅली दीदी और मैं रात-भर बैठे देखभाल में लगे रहे । यात्रा की थकान के कारण नींद बरावर दबोचती, पर सामने सुभद्रा के प्राणों का प्रश्न था : रात के एक-एक पल को पलकों में ही विता दिया। भोर की उजास फूटने आयी तब सुभद्रा की आँखें फड़कीं। जैसे भयात हरिणी टुक-टुक देखती हो। उसकी पलकें तक बेजान हो गयी लगीं।
16 / मृत्युंजय