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________________ "ले, यह टॉर्च लेकर अपने धन को देख ले । जी भरकर देख ले । हम लोग जाते हैं।" उसने शइकीया का हाथ खींचा और फिर दोनों वहाँ से चल दिये। डिमि ने टॉर्च की रोशनी में धनपुर के चेहरे को देखा। धनपुर की साँस तब भी धीमी-धीमी चल रही थी। डिमि ने उसके मुंह को थोड़ा ऊपर उठाया। और बांहों में भरकर चूमती हई बोली : "थोड़ी देर तक क्यों नहीं रुके रहे मेरे धन?" धनपुर को बाँहों में समेटे वह पागलों की तरह बहुत देर तक विलाप करती रही। अचानक धनपुर की आँखें खुलीं । डिमि ने बड़ी आशा से उसकी ओर देखा और पुकार उठी : "धन, धन, मैं आ गई धन !" लेकिन धनपुर की खुली हुई आँखें इस बार खुली ही रह गयीं। उसकी देह ठण्डी होती गयी। डिमि गुम-सुम बैठी रही। उसकी आँखों की कोरों से आँसू बहते रहे। मृत्युंजय | 197
SR No.090552
Book TitleMrutyunjaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBirendrakumar Bhattacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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