________________
इस बीच लोगों का एक झुण्ड भागता हुआ वहाँ आया। उनमें से एक ने कहा :
"अरे इधर पुलिस खड़ी है । भागो, जल्दी भागो।" और सभी के सभी उल्टे पाँव भागे । तभी एक ने साहस बटोर पूछ ही लिया :
“यह लाश किसकी है? शायद गोसाई जी के ही किसी साथी की होगी।" वह स्वयं थोड़ा आगे बढ़ आया और उसे पहचानते हुए बोला :
"अरे, यह तो डिमि का भाई है।"
"डिमि का भाई ?" दूसरे ने चकित स्वर में कहा । "लगता है, बड़ा बहादुर आदमी था।"
"हां," एक और ने हामी भरी।
किन्तु किसी को वहाँ रुकने का साहस नहीं हुआ। पुलिस के नाम से ही मानो उन्हें भय और घृणा हो गयी थी । कोई उपाय भी तो नहीं था।
निराश हो शइकीया वहाँ से चलने को था कि सहसा उस झुण्ड से निकलकर डिमि दौड़ती हुई वहाँ आयी। वह पूरी तरह हाँफ रही थी। धनपुर को दूर से ही देख वह जोर-जोर से रोने लगी : __ "हाय, किसने मार दिया मेरे धन को ! हाय मेरे धन !"
"धन ! धन ! !" पुकारती हुई डिमि धनपुर के पास आ बैठी। शइकीया चकित हो डिमि को घूरने लगा । इसे क्या हो गया ! कौतूहलवश उसने टार्च जला दी जिससे धनपुर को देखने में डिमि को सुविधा हो गयी। वह बाहर से अभी-अभी लौटी ही थी कि जयराम से धनपुर की सूचना पा दौड़ती-भागती यहाँ चली आयी। उसके चेहरे पर संकोच का भाव क़तई नहीं था। व्याकुल हो-होकर वह चिल्ला रही थी :
"धन, मेरे धन, जरा आँख खोलकर एक बार देख तो ले ?"
किन्तु धनपुर की चेतना इस बार लोटी नहीं। उसने धनपुर के सिर को उठाकर अपनी गोद में रख लिया। फिर शइकीया की ओर देखकर बोली :
"तुम्ही लोगों ने इसकी जान ली है न ? दूर हट जाओ यहां से।" लयराम सहानुभूति से भर गया।
डिमि के कपड़े अस्त-व्यस्त हो गये थे। जूड़ा खुलकर बिखर गया था। देह पर के वस्त्र भी खिसक गये थे। उसे अपनी सुध-बुध भी नहीं थी। उसने डपटते हुए कहा : __"यहाँ से गये नहीं अभी तक मक्कार ! जानती हूँ, इस मुर्दे को खाकर ही तुम लोगों को चैन मिलेगा। देशद्रोही कहीं के, कमीने ! कीड़े पड़कर मरोगे।" ___लय राम के लिए यह सब असहनीय हो रहा था । उसने डिमि की ओर टॉर्च फेंकते हुए कहा : 196 / मृत्युंजय