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________________ - ग्यारह "तुम सबसे जाने के लिए कहा है न, जाते क्यों नहीं ?" धनपुर बहुत ही कष्ट में था। जिस किसी तरह वह इतना कह पाया था। उसकी पीड़ा बढ़ती ही जा रही थी। उसकी टांग से ख न का बहना अब भी बन्द नहीं हुआ था। कोई उपाय न सूझा तो जयराम ने कच्च के पत्ते से अपनी अंजलि में थोड़ा-सा जल लिया और वह 'करति-मन्त्र' जपने लगा : ".."जय जय करति जय मूरति : खाइल करति : खाइल करति दिन राति । खाइल करति, जपो। कुमन्त्र कुज्ञान काटो। काटि काटि पानी हेन करों। गण्ड गण्ड महागण्ड । चक्रे काटि करों खण्ड-खण्ड..." तभी धनपुर की बात सुनकर वह सहम गया। नदी किनारे धनपुर एक पेड़ का सहारा लिये टिका था । उसने उच्छ्वास छोड़ते हुए कहा : “मन्त्र-तन्त्र से कुछ नहीं होगा, जयराम । मायङ के मन्त्र की तो छोड़ो, अब गोरे साहबों के डॉक्टर भी मुझे नहीं बचा सकते। बस, अब तो किसी तरह डिमि को बुला दो।" "डिमि अब तक नहीं आयी। मुझे तो आशंका हो रही है। अच्छा, मैं समाचार लेकर तुरंत आता हूँ। इन सबकी भी चिन्ता हो रही है।" "किनकी ? मधु वगैरह की क्या ?" "नहीं, वे लोग अब तक शायद मायङ पहुँच गये होंगे। मायङ पहुँच जाने पर फिर कोई चिन्ता नहीं। तब तो गिरफ्तार करने के लिए कोई छिद्र भी नहीं मिलेगा। यों भी कोई गड़बड़ी नहीं हुई होती अगर लयराम ने बदला न लिया होता।" ___ "कुलांगार निकला । यह जनता तो पहले उसी की बलि चढ़ायी होती। अब तक गोसाईंजी आदि का समाचार भी न मिलना चिन्ता का विषय हो गया है।" कहते हुए धनपुर दर्द से एक बार फिर कराह उठा। "बलबहादुर गया है । उसके लौटने पर सही समाचार मिल सकेगा।" __ जयराम ने कच्चू के पत्ते का बाक़ी बचा जल वहीं डाल दिया। धनपुर यदि मरणासन्न न होता तो वह ऐसा अपमान सहन नहीं करता। किन्तु इस समय उसने
SR No.090552
Book TitleMrutyunjaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBirendrakumar Bhattacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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