SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 191
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पूरा हो गया है।" ___ अपनी देह की सारी शक्ति समेटकर ही गोसाईं ने ये बातें कही थीं। फिर बन्दूक सँभाल वे वहीं औंधे लेट गये। ___ रूपनारायण और दधि-दोनों ने गोसाईजी को प्रणाम किया। दुःखी मन लिये चट्टान से नीचे उतर गुफा की ओर बढ़ गये। उधर आकाश का चांद भी मानो काँपता हुआ छिप जाना चाहता था। रूपनारायण कोई भी बात ठीक से नहीं सोच पा रहा था । गोसाईजी के इस आत्मत्याग का प्रत्यक्ष उदाहरण देख उसमें वैचारिक द्वन्द्व चल रहा था। दधि कुछ बोल नहीं पा रहा था । उसका दुख व्यक्तिगत था। वह सोच रहा था कि मायड्. में गोसाईजी अब भला कहाँ मिलेंगे ! भौंकने की आवाज तेज़ होती जा रही थी। गोसाईं की देह भी धीरे-धीरे शिथिल पड़ती जा रही थी। तभी उन्हें जैसे कहीं से हिरणी का रुदन सुनाई पड़ा। उन्हें लगा, कहीं यह भ्रम तो नहीं । नहीं, यह तो गोसाइन के रोने की आवाज़ है। उन्हें भ्रम नहीं हो रहा है। भला इसमें भ्रम की क्या बात ठहरी ? यही है संसार । विचित्र किन्तु क्रमबद्ध । उनका अपना कर्तव्य पूरा हो गया। पर पत्नी को कुछ नहीं दे सके। भला कौन किसको क्या दे जाता है ? यही सब माया है। संसार में रह जाता है मात्र कर्तव्य-कठोर अलंध्य कर्तव्य । कर्तव्य में वे खरे उतरे। रह गयी हिंसा की बात ! वह यदि हुई भी है तो देश के लिए ही न ! इसमें कोई दोष नहीं। इसके लिए इतिहास उन्हें क्षमा कर देगा। हाँ, उनका धर्मप्राण विवेक ही उन्हें क्षमा नहीं करेगा । आदमी की हत्या करना बुरा है। किसी भी व्यक्ति द्वारा आदमी के ख न से निर्मित कोई भी मन्दिर स्थायी हो नहीं सकता। पर स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण को भी यदा-कदा अपना सुदर्शन-चक्र धारण करना ही पड़ा था। दुष्टों का दमन करने के लिए हिंसा भी कभी-कभी आवश्यक हो जाती है। ___इस बार कुत्ते की भौं-भौं बड़ी निकट से आती हुई लगी। गोसाई ने भी अपनी बन्दूक साध ली। मृत्युंजय / 187
SR No.090552
Book TitleMrutyunjaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBirendrakumar Bhattacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy