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________________ विचार करने का दायित्व मेरा है, दलपति मैं हूँ। फिर, मेरे प्राण यों भी क्षीण होते जा रहे हैं । खाँसी के मारे मेरा दम यों भी घुटा जा रहा है । अब तो यह भी पता नहीं चलता कि मेरा फेफड़ा काम कर रहा है या नहीं। मेरी साँस किसी भी सनय रुक सकती है। ___-"एक बात और कहूँ, मेरे प्राण बुझ-से गये हैं । मेरा यह हाथ आदमी के खून से सना है। कितना असहनीय हो गया है यह मेरे लिए, कह नहीं सकता हूँ। मेरा विवेक साथ नहीं दे रहा है। दरअसल मैं नैतिक द्वन्द्व से ग्रस्त हो गया हूँ। झूठ बोलने से कोई लाभ तो है नहीं। मैं अहिंसा की लड़ाई को ही उत्तम मानता हूँ। सच्ची लड़ाई तो बस वही है। खैर ! छोड़ो इन बातों को, उसे दोहराने से कोई लाभ नहीं । छाती की पीड़ा के कारण मेरी देह भी अब साथ नहीं दे रही है। यों भी रास्ते में मेरी मृत्यु हो ही जायेगी। हां, केवल दैहिक रूप में ही, नैतिक दृष्टि से नहीं। यह सब तुम लोग नहीं समझ पाओगे। मैं प्रतिज्ञा भंग नहीं करूंगा। क्रांति की गति शिथिल नहीं होने दूंगा । कर्तव्यच्युत नहीं होऊँगा । दलपति का कार्य मैं ही संभालुंगा । तुम लोग जाओ, बचकर भाग निकलो। और हां, साथियों से मिलते ही उनसे कहना कि दलपति का आदेश है—क्रान्ति को जारी रखें।" एक क्षण रुके और फिर कहने लगे, "पता नहीं, अब तक धनपुर जिन्दा भी है या नहीं। यह भी कहना मुश्किल है कि और भी साथी गिरफ्तार कर लिये गये हैं या बच रहे हैं। फिर धर-पकड़ वगैरह तो होती ही रहती है। यह सब तो चलता ही रहेगा। चलने दो ! तनिक भी चिन्ता न करो! रह गयी दलपति की बात सो उसकी इस दुर्बलता से सब लोग बचते रहें। अब जाओ, भगवान् की कृपा से एक काम हो गया। इस काम की सही जानकारी पाने के लिए वे सब प्रतीक्षा कर रहे होंगे। हाँ, एक बात और ध्यान में रखना। गोसाइन को यदि कोई सन्तान हुई और लोगों ने उसे जीवित छोड़ा हो, तो तुम सब उसकी देखभाल करना । मधु से कहना कि वह सत्र की देख-रेख करेगा । अब जाओ। बात करने का समय नहीं है. जाओ।" ___ रूपनारायण को लगा मानो वह किसी किस्से के वीर पुरुष की उक्ति सुन रहा हो। वह समझ गया कि गोसाईजी की यह योजना अकाट्य और तर्कसम्मत है। फिर यह दलपति का आदेश था जिसे शिरोधार्य करना ही उसका कर्तव्य था। उसने एक बन्दुक दधि को थमा दी। गोसाईंजी की बन्दूक की भी परीक्षा की। उसमें गोली भरी हुई थी। जाने के पहले उसने कहा : "आपकी बात सदा याद रहेगी। हम क्रान्ति का पथ नहीं छोड़ेंगे।" दधि की आँखें डबडबा आयी थीं। ___ "मैंने वही किया है जो एक दलपति का कर्तव्य होता है। तुम सब वचकर रहो और अपना काम करो। मेरे लिए दुःख मत करना । मेरा अपना काम लगभग 186 / मृत्युंजय
SR No.090552
Book TitleMrutyunjaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBirendrakumar Bhattacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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