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और मैं, इस कुत्ते की लीला समाप्त कर सम्भव हुआ, तो आ जाऊँगा। नहीं तो हमारी यही अन्तिम भेंट समझो। इसके सिवा और कोई चारा नहीं है । तीनों के तीनों इस तरह यहाँ फँस जायें, इससे अच्छा तो यही होगा कि तुम दोनों यहाँ से भाग निकलो।" कहते हुए गोसाईं ने अपने कन्धे पर से बन्दूक उतार ली ।
__ "गोसाईंजी, आप यह क्या कह रहे हैं ? वे लोग होंगे ही कितने ! अपने पास बन्दकें भी हैं। आने दो, देख लेंगे। उनकी इतिश्री करके ही निकलेंगे।" दधि ने संभलते हुए कहा।
"क्या विचार है, रूपनारायण ?" गोसाईं ने पूछा।
"दधि की बात ठीक नहीं जंचती।" रूपनारायण बोला। वे लोग एक-दो तो होंगे नहीं । पूरा दल का दल आया होगा। केवल पुलिस ही नहीं, मिलिटरी भी। और साथ में लयराम भी आया होगा। "हाँ, पर यह मेरा अनुमान भर है। उतने सब नहीं भी हों लेकिन रेलगाड़ी के उलटने की आवाज़ तो उन्होंने सुनी ही होगी। इसलिए उनके इक्के-दुक्के आने की नहीं सोची जा सकती। मुझे तो आपकी बात ही ठीक जंचती है, गोसाईंजी। तीनों का बच निकलना संभव नहीं। इसलिए हममें से अपने को छाँटना होगा। मेरे हिसाब से यहाँ मुझे ही रहना चाहिए। दधि और आपको चल देना चाहिए।"
गोसाई ने हंसने का प्रयास किया, पर हँस न सके। इस बार उन्होंने दधि की राय जाननी चाही, "क्या कहते हो दधि ?"
परेशानी से दधि के ललाट पर पसीने की बूंदें झलक आयी थीं। वह समझ नहीं पा रहा था कि इस हालत में उसके लिए क्या करना उचित है । क्रांति को जारी रखने की दृष्टि से गोसाईजी और रूपनारायण दोनों की अनिवार्यता को कोई नहीं नकार सकता। इन तीनों में केवल उसे अपने जीवन का मूल्य कम प्रतीत हो रहा था। अतः यहाँ उसे ही रुकना उचित लगा। साहस बटोरते हुए वह बोला : ___"एक बात कहूँ, गोसाईजी। आप दोनों का जीवन बड़ा कीमती है। आप दोनों ही अपने को बचाने की कोशिश कीजिये। मैं यहाँ रुकता हूँ। फिर अगर उन लोगों को लयराम ही रास्ता दिखा लाया है, तो उसके लिए भी दोषी मैं ही हूँ। इसलिए यहाँ रहकर मैं कम-से-कम उसे तो ख़त्म कर डालूंगा।"
कुत्ते की भौं-भौं एक बार फिर सुनाई पड़ी। सुनते ही गोसाई ने कहा :
"सुनो रूपनारायण, और दधि तुम भी ! लयराम आ भी सकता है और नहीं भी । शइकीया उसके लिए बाट जोहते रहनेवाला आदमी तो है नहीं । फिर लयराम पर से मेरा विश्वास अब भी पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है। इसके बावजूद सचाई यह है कि दो को बचाने के लिए हममें से किसी-न-किसी को तो मरना है। फ़िलहाल और कोई उपाय नहीं दीखता है। पर मरेगा कौन, यह
मृत्युंजय | 185