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तर्क करना अच्छा नहीं समझा। मायङ के मन्त्र पर इतना अविश्वास ।
वह चुपचाप नदी के किनारे जंगल से होकर जाने वाली राह पकड़कर डिमि के घर की ओर बढ़ गया ।
धनपुर को इस बार अकेलेपन का अनुभव हुआ । उस समय रात के दो या तीन बजे होंगे। नदी की ओर से शीतल हवा आ रही थी पर वह सर्द हवा भला असह्य पीड़ा से विकल हुए देह को क्या आराम पहुँचाती ? और थोड़ी देर बाद तो वह उस पीड़ा की बेचैनी को भी अनुभव नहीं कर सकेगा । कमर तक का भाग तो जड़ बन ही चुका था । देह के ऊपरी हिस्से में भी मानो अब कुछ रह नहीं गया था । वह स्वयं सोच नहीं पा रहा था कि अभी तक उसके हृदय की धड़कन बन्द क्यों नहीं हुई । वंशी से पकड़ी गयी मछली किनारे पर छोड़ दिये जाते ही जैसे छटपटाने लगती है, वैसे ही उसकी छाती धड़क रही थी । उसे लगा कि यह मृत्यु की पूर्वसूचना है। इस संसार में वह फिर न जाने कहाँ जन्म लेगा । क्या पता कि वह सवेरे का सूरज भी देख पायेगा । दर्द से सिर मानो फटा जा रहा था । आँखों के आगे धुंधलका फैलता जा रहा था ।
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अब तक उसमें जो सोचने की थोड़ी-बहुत क्षमता शेष थी, अब वह भी समाप्त होती जा रही थी । रेल की पटरियाँ उखाड़ना, क्रान्ति, स्वाधीनता, क्रोध सभी कुछ अब जैसे दूर की बातें लग रही थीं। हाँ, सुभद्रा को वह अब भी नहीं भूल पाया था । घर-गृहस्थी रचाने की उससे की गयी पिछली सारी बातें उसे याद आ रही थीं। पर, वह जो नहीं रही । धनपुर सोच नहीं पा रहा था कि वह कहाँ चली गयी।
उसकी छाती अब और ज़ोर से धड़कने लग गयी ।
वह शायद पहले ही समझ गयी थी – बहुत पहले ही । धनपुर ही तो था जिसने उसे आशा बँधायी थी – बचे रहने की, घर बसाने की, देश का नये सिरे से निर्माण करने की । ठीक ही हुआ। आज जीवित होने पर उसे और अधिक कष्ट होता । वह इसे सह भी नहीं पाती.
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तभी धनपुर की आँखों से आँसू झरझरा पड़े। क्या अब भी देह के भीतर पानी मौजूद है ? हाँ है । चिता में शव को जलाते समय भी शायद देह में पानी रहता है ।
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सुभद्रा की एक प्रतिमूर्ति अब भी जीवित है । डिमि ! डिमि ! डिमि !
डिमि
सहसा बालू पर किसी के चलने की आहट मिली। किसकी हो सकती है यह आहट, वह अनुमान नहीं कर पा रहा था । उसे लगा जैसे फुसफुसाकर कोई बातें कर रहा है।
"डिमि !" वह पुकार उठा, पर उसकी आवाज़ निकल नहीं पा रही थी ।
मृत्युंजय | 189