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________________ को टोका उसने : ___ "यह सब तो ठीक भाई, अपनी वह कहानी पहले पूरी कर। रोहा तो पहुँच ही गये होंगे तीनों निरापद ?" । धनपुर सुनाने लगा : "हाँ, पहुँचते-पहुंचते अंधेरा झुकने लगा था। सुभद्रा को सँभालकर आश्रम के कमरे में लिटा दिया। तब देखा उसके ही कपड़े और नहीं रंग गये हैं, मेरे कपड़ों पर भी जगह-जगह धब्बे आ गये हैं। वह कच्ची मछली जैसी गन्ध तो नाक में बस ही गयी थी। सुभद्रा अब भी उसी तरह आंखें मूंदे निढाल बनी थी। पहली नज़र में तो पहचानना मुश्किल था कि साँस भी ले रही है या नहीं। मैं उसे वहीं लेटा छोड़ तालाब की तरफ़ लपका। कपड़ों के धब्बे धोये, नहाया; मगर वह गन्ध तो मानो छोड़ने का नाम नहीं ले रही थी।" अजीब-सा मुंह बनाते हुए उसने आगे बताया : "कमरे में लौटा तो कॅली दीदी ने कहा, 'जा, देखकर आ डिस्पेन्सरी में डॉक्टर हैं या नहीं। हों तो बुला लाना।' मुझे नाक पर रूमाल रखते देखा तो झिड़कते हुए बोलीं, 'एक की गन्ध से यह हाल ? मिलिटरी और पुलिस ने तो न जाने ऐसी कितनी-कितनी बेचारियों का सर्वनाश किया है। कितनी ही तो अपंग हुई पड़ी हैं। कोई देखे तो खौल उठे । मगर इस गन्ध से अब परिचित होना पड़ेगा भइया। यही तो अत्याचार की गन्ध है । जा, डॉक्टर को जल्दी ले आ। देर होने से कहीं यह मर ही न जाये।' ___मैं डिस्पेन्सरी की तरफ़ चल दिया। किन्तु मन-ही-मन सोचता हुआ कि अत्याचार की भी गन्ध होती है क्या ?" धनपुर हठात् फिर उसी सोच में खो चला था। भिभिराम ने माणिक बॅरा के मुंह की तरफ़ देखा। माणिक स्वयं खोया-खोया हो आया था। बोला : "सुनते नहीं बनता, भिभिराम । मुझे भी घेरे आ रही है वही गन्ध । किन्तु बढ़मपुर के जंगल में जो लाशों का ढेर लगा था उनकी गन्ध इससे दसों-बीसों गुना असह्य थी।" . "बढ़मपुर गये थे क्या तुम ?" धनपुर ने पूछा । "हाँ" "क्या हुआ वहाँ बताओ न ?" "पहले सुभद्रा की पूरी बता लो।" धनपुर आगे बताने लगा : "डिस्पेन्सरी पहुँचने पर देखा कि सब-इन्सपेक्टर बाहर निकल रहा है। मैं झट से पेड़ की आड़ में छिप गया । देख न पाया वह। नहीं तो सर्वनाश हुआ रखा था। मैंने दबे पाँवों किनारे-किनारे बहकर कमरे में झांका । कोई न था वहाँ : 14 / मृत्युंजय
SR No.090552
Book TitleMrutyunjaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBirendrakumar Bhattacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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