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सकती थी ।
"भला, ये लोग रुके क्यों हैं, दोनों की बन्दूक उठा क्यों नहीं लाते ? वे अपने काम आयेंगी ।" मन-ही-मन कहते हुए उसने ऊपर की ओर देखा । "गोसाईं के दिमाग़ में कीड़ा घुस गया है क्या ?" उसने फिर चढ़ाई की ओर देखा । लगा जैसे कोई आ रहा है। हाँ, आ रहा है। पैरों की आहट मिली । धनपुर ने आँखें मूंद लीं । उसे सुभद्रा की याद ताजा हो गयी । काश ! इस समय वह इसके पास होती । अच्छा ही हुआ कि वह पास नहीं है। उसे बड़ा कष्ट होता । डिमि को भी कष्ट होता, फिर भी उसका मन मानता नहीं ।
इधर गोसाईजी समझ नहीं पा रहे थे कि दोनों मर चुके या अभी भी जीवित हैं । उठकर जल्दी से वह भिभिराम के पास पहुँचे । बोले :
"भिभि, जल्दी चलो । धनपुर घायल हो गया है, उसे उठाना पड़ेगा। आहिना कोंवर यहीं रहें । जरा चौकस ही रहिये ।"
गोसाई और भिभिराम तेजी से धनपुर की ओर बढ़ गये । जाते समय रस्सी भी खोलकर लेते गये ।
रूपनारायण अपनी जगह से हिला नहीं था । उसने धनपुर को गिरते हुए देखा था और इधर से गोसाईंजी को उठकर जाते हुए भी। उसे लग रहा था कि -ट्रॉली अब किसी समय आ सकती है। कब आयेगी, कुछ कहा नहीं जा सकता । पर, अपनी जगह से हिलने का यह समय नहीं है । पल-पल पर मुसीबतें हैं । मधु तब भी पेड़ के ऊपर ही डटा था । उन दोनों गश्ती देने वाले को आते देखकर ही उसने शायद संकेत किया था। हाँ, उन्हें पहचानने में उसे देर अवश्य हुई थी। दरअसल वे रेल की पटरियों पर चलते हुए नहीं आये थे । जंगल की ओट ते हुए लौट रहे थे । अन्यथा वह उन्हें पहले ही क्यों नहीं देख लेता । वह नीचे उतरना चाहता था, किन्तु जगह को छोड़ने का आदेश उसे था नहीं ।
ऊपर से ही वह धराशायी हुए उन मिलिटरीवालों पर नजर जमाये था । उनके थोड़ा हिल-डुल करने पर वह वहीं से एक और गोली दाग देगा - यही सोचकर वह स्थिर बना हुआ था। कुछ देर तक ध्यानपूर्वक देखने के बाद वह उस ओर से निश्चिन्त हो गया । दोनों की छाती पर गोली लगी थी। वे अब निःशेष हो चुके थे । एक मरा था उसकी गोली से और दूसरा गोसाईं की गोली से । गोसाईं ने दो गोलियाँ चलायी थीं ।
गोसाई छितवन के पेड़ तले जा खड़े हुए। उनके हाथ में रस्सी थी। वहीं एक खूंटा गाड़ उसमें रस्सी बांधकर उसे नीचे की ओर लटका दिया। फिर हाथ में बन्दूक लिये ही वे धीरे-धीरे नीचे उतर गये । रस्सी को वे तब भी हाथ में थामे हुए थे ।
यहाँ धनपुर एक बाँस को पकड़े हुए खड़ा था । गोसाईजी को देखकर उसके
164 / मृत्युंजय