SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 157
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रेलगाड़ी देखने जागीरोड गया था। वहाँ रेलगाड़ी में चढ़ते समय, हे कृष्ण, राजाजी ने पान-बीड़ा देकर प्रणाम भी किया था। कहते हैं, उसमें देवता का वास था, हे कृष्ण । उसके बाद, याद नहीं किसने, अरे हाँ ! हे कृष्ण, आपके पिताजी ने ही तो कहा था, 'चलो कोंवर, साहबों के रथ पर चढ़कर एक बार गुवाहाटी ही देख आयें ।' और, हे कृष्ण, हम दोनों गुवाहाटी गये भी थे। हे कृष्ण, रफ्तार तो उसकी बिजली-सी थी। गाड़ी के चलने पर हृदय काँपने लगा था। आपके पिताजी तो 'घोषा' गाने लगे थे : निरंजन निरंजन निरंजन हरि । निरंजन निरंजन निरंजन निरंजन... हरि हरि राम, निरंजन निरंजन हरि !... "क्या बताऊँ आपको ! रेलगाड़ी के पहियों की आवाज़ और हरि का नाम दोनों एक हो गये थे, हे कृष्ण। तभी प्रभु ने कहा था, 'भगवान् के बिना ऐसी तेज़ रफ्तार पहियों में कहाँ से आयेगी ?' और हे कृष्ण, धुआँ उगलने वाले उस इंजन की सीटी तो गोसाईं घर में बजने वाले शंख की आवाज़ हो—ऐसा भान हो रहा था।" गोसाई को लगा जैसे आहिना कोई किस्सा सुना रहा हो। वह भी एक समय था जब मायङ के लोग सभी बातों में बड़े ही सरल और भोले-भाले थे। तभी तो वे मन्त्र को भी देवता ममझते थे। राजनैतिक चेतना तो किसी में थी ही नहीं। गाँव ही उनके लिए संसार था। वहाँ जो कुछ था वही उनका अपना था । बाक़ी के बारे में वे सर्वया अपरिचित थे । और तब जिनको उन्होंने कभी देखा-समझा न था उन्हें वे लोग भूत समझ लेते थे या देवी-देवता। तभी तो रेल की सीटी उनके पिता को शंख-ध्वनि जैसी लगी थी। उनके पिता तब तक यह भी न समझ सके थे कि अंगरेज़ साहबों ने असम में रेल की पटरियाँ क्यों बिछायीं। उन्होंने रेलें बिछायीं हमारे यहाँ से मिट्टी का तेल, कोयला और चाय की बाज़ारों तक ढुलाई के लिए, बड़े-बड़े बाजारों में बेचकर मुनाफ़ा कमाने के लिए। मुनाफ़ा कमा-कमाकर वे लगातार धनी बनते गये और इधर हमारे गांव दिनों-दिन होते गये ग़रीब। मायङ के राजा बानेश्वर बन गये प्रजा, और लन्दन की महारानी बन बैठी ऐसे साम्राज्य की अधीश्वरी जिसका सूरज कभी अस्त नहीं होता। उनके षड्यन्त्र को न समझने के कारण ही ऐसा हो गया। ___एक बात और है। हमारे यहाँ के लोगों का मन भी दिनों-दिन निष्क्रिय होता गया। मशीनों के आविष्कार की ओर ध्यान नहीं दिया गया । तभी तो मशीनों को देखते ही उन्हें देवता समझने की भूल होने लगी, मानो वह किसी अलौकिक शक्ति का परिणाम हो। अपने पूर्वजों की नासमझी और सरलता पर ध्यान जाते ही गोसाईं को जैसे लज्जा आ गयी : जो रेलें कभी मुनाफ़े की चीजें ढोती थीं, मृत्युंजय | 153
SR No.090552
Book TitleMrutyunjaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBirendrakumar Bhattacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy