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"कोंवर, जरा अंगोछे में बँधी पुड़िया तो खोलो। और सुनो, काम का बँटवारा हो गया है। आप यहीं पर ही चुपचाप बैठे रहेंगे। ऊँह-आँह भी न करेंगे। हमें अपनी-अपनी ज़िम्मेदारी निभाना है।"
आहिना कोंवर ने अंगोछे से एक पान निकाला। उसमें थोड़ी खैनी और सोंठ का एक टुकड़ा मिलाकर गोसाईंजी की ओर बढ़ाते हुए उनकी संतुष्टि के लिए कहा : ___"एक टुकड़ा सोंठ का भी मिला दिया है । कम-से-कम, हे कृष्ण, दो घड़ी तक तो खाँसी बन्द रही आयेगी। एक बात और, इस ऊँचे-नीचे स्थान में चढ़ते-उतरते समय कभी रेंगना भी पड़ सकता है। एक रस्सी होती तो कितना अच्छा होता, हे कृष्ण ! मैंने इधर पास में ही लम्बी-लम्बी लताएँ देखी हैं। उन्हें बट कर एक मोटी रस्सी बनायी जा सकती है जिसे किसी खूटे से बाँधकर नीचे लटका रखना अच्छा रहेगा, हे कृष्ण । उससे जगह की पहचान भी बनी रहेगी, हे कृष्ण, और उसके सहारे ऊपर चढ़ने में भी आसानी होगी।"
गोसाई पान का बीड़ा चबाने लगे। तब तक आहिना ने गठरी से दाव निकालकर रेलगाड़ी की आवाज़ के साथ ताल मिलाते हुए पास के ही एक छोटे पेड़ की एक पतली डाल काट उससे दो खूटे बना लिये। उन्हें गोसाईं के पास छोड़ वह एक मज़बूत लता की खोज में जुट गया। सौभाग्य कि दूर जाना नहीं पड़ा। पास के ही वृक्षों पर लम्बी-लम्बी लताएँ लटकी हई थीं। उन्हें काटकर वह गोसाई के पास ले आया। बरगद की जड़ों पर बैठकर ही उसने उन्हें बट कर एक मज़बूत रस्सी का आकार दे दिया। फिर बरगद के घेरे की परीक्षा करते हुए बोला :
"हे कृष्ण, खूटा इस पेड़ से थोड़े नीचे की ओर गाड़ना पड़ेगा। तभी इसका एक सिरा नीचे तक पहुँच सकेगा, हे कृष्ण । एक खूटा रहने देता हूँ। बाद में कभी काम आयेगा।"
मुंह में पान दबाये गोसाई आहिना कोंवर का काम देख रहे थे। साथ ही वे अपने अन्तर्मन की ऊबड़-खाबड़ जमीन को गोड़कर इच्छा रूपी फावड़े से चौरस भी करते जा रहे थे।
कोंवर ने रस्सी खूटे से बाँध दी और धीरे-धीरे उसे नीचे लटका दिया । फिर कुछ कटीली झाड़ियों को साफ़ कर नीचे खाई की ओर झाँका । सतुष्ट हो वह गोसाईंजी के पास लौट जड़ों पर बैठ गया। खूटा माप के अनुरूप ही गाड़ा गया था। ___ रेलगाड़ी निकट आती जा रही थी। धरती की धड़कन भी कई गुना तीव्र होती जा रही थी। कोंवर ने गोसाई से कहा :
"प्रभु, जब आप नन्हे-से शिशु ही थे, आपके पिताजी और राजाजी के साथ
152/ मृत्युंजय