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काँटों में बिंधकर गोसाईं की चादर तार-तार हो चुकी थी। तब भी बीहड़ को चीरते हुए वे रेलवे लाइन के किनारे की उस गहरी खाई के पास जा पहँचे। आहिना भी किसी तरह रुकते-घिसकते खाई के निकट ही बरगद के तले पहुँच उसकी पीड़ से टिककर बैठ गया ; उसे ज़ोर से हँफनी चलने लगी थी। रूपनारायण वहाँ पहले ही पहुँच गया था। वहीं खड़े हो वह धनपुर आदि का अनुमान लगाने के लिए अपने कान लगाये था। लेकिन उन सबका पता लगाने के पहले ही उसे सुनाई पड़ी वही चिरपरिचित छक्-छक्-छक्-छक् की आवाज़ जिसे वह बच. पन से ही सुनता आ रहा था। वह एक क्षण के लिए विस्मित हो उठा : गाड़ी छक्-छक् करती हुई केरेलुवा जैसे लाल कीड़े की भाँति कई टाँगों पर सवार होती हुई आ रही होगी। ___ बाँस का घना जंगल । आड़े-तिरछे बाँस बुरी तरह फैले थे। सूरज की किरणें भी उन्हें लाँघ नहीं पाती थीं। नीचे की मिट्टी गीली थी और उस पर सड़े-गले पत्ते तीखी बदबू के साथ सने हए थे। ___ अफ़ीम की चस्की की सारी आशाओं पर पानी फिर जाने से आहिना भी उन विशेप क्षणों में भक्ति के राग में रमा था। कानों में आवाज़ पड़ते ही वह नामकीर्तन की पंक्तियाँ गुनगुनाने लगा :
निरंजन निरंजन 'निरंजन हरि। निरंजन निरंजन निरंजन निरंजन,
हरि हरि राम, निरंजन निरंजन हरि... इधर रेलगाड़ी के इंजन की छक्-छक् से उस टीले में भी कम्पन होने लगा। पेड़ के पत्तों की फाँक से रूपनारायण ने गगनभेदी आवाज़ करती आती रेलगाड़ी की दिशा में अपनी दृष्टि पसार दी। ___ तभो गोसाई ने घड़ी देखी। साढ़े चार बज रहे थे। देर हो चुकी थी। यह सोचकर कि कम-से-कम रेलगाड़ी के गुजर जाने तक तो वहाँ रुकना ही होगा, उन्हें लगा कि क्यों न पान-तम्बाक ही खा लिया जाय । उन्होंने आहिना कोंवर को इशारा करते हुए कहा :