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________________ "क्यों, क्या हुआ? ये असमय में पसीना क्यों, क्या बात है !" और तब रूपनारायण संयत हो गया। "तब तुम भी इसी रोग के मरीज़ हो क्या ?" गोसाई हँस पड़े। बोले, "तुमको क्या दिलासा दूं, रूप ? तुम तो ख द समझदार लड़के हो । चलो, चलकर गुफा देख आयें। नहीं तो देर हो जावेगी।" दोनों गुफा की ओर चल पड़े। झरने के पास की बड़ी चट्टान के दाहिने पाँचएक मिनट चलने के बाद वे फिर बायें घूमकर कुछ ऊपर की ओर चढ़ गये। फिर दूसरी ढलान की ओर उतरकर दो टीलों के बीच से होते हुए घने जंगल में ओझल हो गये। ___गुफा के सामने खड़ा हो गोसाई ने ऊपर की ओर ध्यान से देखा। उसकी ऊपरी सुरंग से, आकाश दिखाई पड़ता था। और धरती : बहुत दूर घने जंगल के उस पार । ऐसा तो उन्होंने सोचा भी नहीं था। एकदम निर्जन एकान्त । दोनों गुफाओं के द्वारों पर दो विशाल जरी के पेड़ खड़े थे और उनके बीचों-बीच पड़ी थी बड़ी-बड़ी कई शिलाएँ । रूपनारायण ने सोचते हुए कहा : "ये दैत्याकार शिलाएँ कभी किसी आदिजाति की पूजा-स्थली होगी। यह गुप्त शिविर के लिए बड़ा अच्छा स्थान है। आइये, अब गुफा के अन्दर चलें।" ___ गोसाईं चुपचाप रूपनारायण के पीछे हो लिये। पहली गुफा कुछ बड़ी थी। लगा कि उसके भीतर दस-बारह व्यक्ति आराम से बैठ जायेंगे । रूपनारायण और धनपुर ने जब पहली बार गुफा में प्रवेश किया था तो वहाँ उन्हें साँस लेना भी दूभर हो रहा था। लेकिन टॉर्च जलाकर अन्दर की थोड़ी सफ़ाई की तब कहीं वह पूरी गुफा ठहरने के योग्य हो पायी थी। धनपुर ने कहा भी था : 'उसके द्वार पर एक टटिया लगा देने पर वहाँ दस-बारह व्यक्ति मजे में सो सकेंगे । हवा-पानी से ये पेड़ रक्षा करेंगे ही।' धनपुर ने ठीक ही कहा था। __ वे दूसरी गुफा में गये। यह कुछ संकरी लेकिन लम्बी थी। सामान रखने के लिए, गोदाम और ऑफ़िस के काम-काज के लिए यह गुफा अनुकूल रहेगी। गुफा में गन्दगी अटी पड़ी थी। रूपनारायण ने टॉर्च जलाकर अन्दर झांका । पर क्या होता टॉर्च से, वहाँ तो दुर्भेद्य अन्धकार भरा पड़ा था। भीतर क्या है, इसका अनुमान लगाना भी सम्भव नहीं था। ऐसी ही गुफाओं में कभी-कभार अजगर, बाघ आकर भी पड़े रहते हैं। फिर भी लगता नहीं कि ऐसी गुफाओं में आदमी भी रह सकते हैं। "बड़ा अच्छा रहेगा यह स्थान" रूपनारायण ने गोसाई की ओर मुड़कर कहा । “यहाँ एक फ़ांग की दूरी पर दाहिनी ओर एक झरना भी है। उसके पार बेंत के जंगल हैं। वहाँ से रेलगाड़ी की आवाज़ सुनाई पड़ती है। ऐसा प्रतीत होता है, मानो वह आवाज़ पाताल से आ रही हो। चारों ओर तीन मील तक पूरा मृत्युंजय | 143
SR No.090552
Book TitleMrutyunjaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBirendrakumar Bhattacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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