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तभी गोसाईजी एक पद गुनगुनाने लगे : भगत-जन जग से रहते निर्लिप्त
मंगलमय अरु सत् अभिराम, पतित पावन है हरि का नाम । सदा सुखदायक प्रभु का यश ! कृष्ण स्वयं हैं अमृत कलश । परमानन्द-सागर सुखराज सँवारे सबके बिगड़े काज । परम मंगलमय सहज सरस । न इससे बढ़कर दूजा रस ॥ पद पूरा कर गोसाई ने कहा, "जो दुख तुम्हें है, वही मुझे भी है । किन्तु विषय-वासना में लिप्त होने का यह समय नहीं है। इसलिए आँसुओं की बाढ़ रोक लो !"
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एक समय रूपनारायण का भी धैर्य टूट चुका था लेकिन 'कीर्तन' और 'नामघोषा ' ने तो उसे कभी सान्त्वना ही नहीं दी है। हाँ, सान्त्वना मिली भी उसे तो इतिहास से । शहीदों के प्रयोजन को कोई नकार नहीं सकता । उसका घर भी तो भरा-पूरा है । पिताजी ने उसे विवाह कर लेने की राय दी। फिर कॉलेज जा पढ़ाई-लिखाई कर अच्छी नौकरी प्राप्त करने को कहा । किन्तु उसे वह सब मान्य नहीं हुआ। देश के स्वाधीन न होने तक नौकरी और विवाह का भला क्या अर्थ है !
रूपनारायण के स्मृति पटल पर पिछली बातें खिंच आयीं : वह पढ़ने-लिखने में बड़ा तेज़ था । नगाँव के वकील शइकीया को बड़ी लड़की है आरती । दसवीं कक्षा की छात्रा । शइकीया ने रूपनारायण को कई बार अपने घर चाय पर बुलाकर साफ़-साफ़ कहा था, ' पढ़ाई-लिखाई के लिए कोई चिन्ता न करना । मुझे भी अपने पिता की तरह ही समझो। इस घर को अपना ही घर मानो । पढ़नेलिखने में आरती को भी थोड़ी-बहुत मदद कर दिया करो । आरती से मेरा परिचय भी स्वयं वकील ने ही करा दिया था । नाहर के पौधे की तरह प्रसन्न चेहरा । साँवली सलोनी, चिकनी देह, कमर तक लटकते हुए घुंघराले बाल और धूप में चांदी जैसी चमचमाती, पानी से लबालब कलङ जैसा मुख मंडल । ऐसा रूप कि देखते ही आदमी अपनी सुध-बुध खो बैठे। तब उसके समक्ष उसका सुन्दर भविष्य झिलमिला उठा था । उस भविष्य के मोह को त्यागने, आंदोलन में सक्रिय बन अपना सब कुछ स्वाहा करने में वह डर भी रहा था। उसकी नज़रों में भी भय था और थी एक कातर प्रार्थना । अन्त में, वह उन्हें भी झटककर चला आया था । उसे खेद भी हुआ था, पर राष्ट्र प्रेम के भावावेग से उसका हृदय तरंगित जो हो उठा था । इसीलिए वह रुका नहीं, चला ही आया ।
रूपनारायण को आरती की याद ताज़ा हो आयी । वह मानो उसे अब भी बुला रही थी : 'लौट आओ, लौट आओ न !' पर वह लौटे कैसे ? उसके ललाट पर पसीने की बूँदें झलक उठीं । उसे पसीना पोंछते देख गोसाई को कौतूहल जागा । बोले :
142 / मृत्युजय