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________________ की पंक्ति में खड़ी हो जाओ । तभी तुम्हारा अबलापन दूर हो सकेगा, तुम्हारे मन में भी एक सबला शक्ति जग उठेगी। वही शक्ति है वास्तविक नारी ।' जंगल के पेड़ों की पंक्तियों से छनकर आती हुई चाँदनी को देखकर गोसाईंजी ये बातें मन-मन कह रहे थे । वे गोसाइन से पुनः मिल सकेंगे क्या ? कौन जाने ? यह भी तो मालूम नहीं कि अगले जन्म में फिर वही मायङ में ही पैदा होंगे। इन बातों का ज्ञान तो रात आख़िरी पहर की धुंधलाहट जैसा है। उनकी खाँसी भी बार-बार उभर आना चाहती थी, लेकिन उसे कम-से-कम अगली रात तक तो रोके रहना ही होगा । देह को कष्ट हो तो हो, लेकिन मन उसकी उपेक्षा कर इस समय कहीं और ही सन्नद्ध है । हाँ, गोली लगने पर इस देह का अन्त होते ही मन भी नहीं रहेगा । धीरे-धीरे गोसाईं की खाँसी बढ़ती ही जा रही थी। किन्तु किसी का ध्यान उस ओर नहीं गया । fsfम रोहा के डॉक्टर की बात करती जा रही थी, "डॉक्टर उन दिनों मूँछ रखता था । उसकी मूंछ पर दही के साथ ही मेहँदी का रंग भी चढ़ गया था । किसी ने दोनों को पहले से मिला दिया था । बेचारे पर तो शामत आ गयी। दिनभर कोशिश करने पर भी वह अपने चेहरे पर से मेहँदी का रंग नहीं छुड़ा सका था । उसे जो देखता, वही छेड़ने लगता । आखिर में रंग लगानेवाली का नाम भी उसके साथ जुड़ गया। पहले लुक - छिपकर बातें शुरू हुई और फिर उनका ब्याह हो गया ।" कहती हुई डिमि धनपुर के बिल्कुल क़रीब आकर कान में फुसफुसाते हुए बोली : "तुम्हारे ब्याह में मैं भी दैयन खेलूंगी। तुम एक बार जल्दी लौट तो आओ ।" धनपुर मग्न हो रोहा के डॉक्टर और दैयन की बातें सुन रहा था । उसका मन सुभद्रा की ओर चला गया। उसे लगा मानो उसके गले में कुछ अटक गया है । हृदय में एक प्रकार के सूनेपन का भी अहसास होने लगा । "डिमि ! पहले बचकर लोट तो आऊँ । अभी कुछ भी नहीं कहा जा सकता ।" धनपुर ने उच्छ्वास छोड़ते हुए कहा । "सुभद्रा मेरी राह देख रही है । मैं भी विवाह के लिए आतुर हूँ । लेकिन इधर कई दिनों से उसका कोई समाचार नहीं मिला है। डिमि, लगता है कि मेरा और कुछ तो शेष नहीं रहेगा, अगर रह जायेगा 1 तो बस तुमसे कहा हुआ सिर्फ़ मेरा सपना ।" वह एक क्षण के लिए रुक गया । फिर डिमि के कान में फुसफुसाया, "तुम्हें और सुभद्रा को मैं एक ही मानता हूँ । तुम्हें अपनी बाँहों में एक बार भर लेने की प्रबल इच्छा हुई भी थी, लेकिन मैं वैसा कर नहीं सका । वह मैं कर भी नहीं सकता । तुम दूसरे की पत्नी जो हो ।” वे दोनों बातों-बातों में आगे निकल गये । गोसाईं और साथी जान-बूझकर ही पीछे रह गये थे । डिमि और धनपुर की बातचीत में वे बाधा नहीं डालना मृत्युंजय / 129
SR No.090552
Book TitleMrutyunjaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBirendrakumar Bhattacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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