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चाहते थे । सबका मन आगे आनेवाले कर्तव्य के बोझ से दबा हुआ था । सबकेसब अपने प्रियजन के बारे में सोच रहे थे। औरों की कौन कहे, भिभिराम का मन भी घर मुँहा हो गया था। घर को छोड़े उसे कई महीने बीत गये थे । सामने दिख रही मौत के भय ने उसके मन में भी अपनी पत्नी से मिलने की इच्छा उत्कट कर दी थी ।
चरम त्याग का मुहूर्त ही प्रेम का मुहूर्त है। त्याग यदि प्रतिपदा है तो प्रेम पूर्णिमा । एक रूपनारायण था जिसके मन में अब तक अपने किसी प्रिय जन की याद नहीं आयी थी। कॉलेज से निकले इस नवयुवक के लिए यदि कुछ था तो वह था देश; केवल देश और कुछ नहीं । जिस लड़की के प्रति इसमें आकर्षण जगा था, वह भी अब तक इससे बहुत दूर ही थी । इस समय वह आन्दोलन के बारे में ही शान्त चित्त से सोच रहा था : अब जबकि चारों ओर पुलिस और मिलिटरी का दबाव बढ़ता जा रहा है, हम सबको चाहिए कुछ दिनों तक चुप्पी साध कर केवल गुरिल्ला युद्ध जैसे कार्य करें। इसके लिए मायङ ही सही जगह है। मायङ और गुवाहाटी के बीच बीहड़ जंगलों में ही गुप्त शिविर लगाये जा सकते हैं । इसके उत्तर की ओर होगी ब्रह्मपुत्र और दक्षिण की ओर खासी - जयंतिया की पहाड़ियाँ | इस काम को पूरा कर हमें यहीं कहीं आकर छुप रहना होगा । गुरिल्ला युद्ध में प्रशिक्षित कर कुछ लोगों को तैयार करने का समय अब आ गया है । अपनों में से ही कुछएक तो इस राय के हैं कि आज़ादी लड़कर नहीं बल्कि अंगरेज़ों से बात-चीत के जरिये हासिल को जाये । कुछ अन्य लोग हैं जो अंगरेज़ों के विरुद्ध आन्दोलन तो दूर रहा, उल्टे उनकी सहायता कर रहे हैं। अधिकांश तो आन्दोलन को ना कुछ समझ अपनी आजीविका को ही सब कुछ मान बैठे हैं । जो थोड़े आदमी हैं भी, वे कर्मठ सैनिक तो हैं नहीं इसलिए आजादी के लिए उठाया या यह बड़ा यदि सफल बनाना है तो निश्चित ही एक बड़ा दल तैयार करना होगा ।
रूपनारायण रचमात्र भी उदास नहीं दिख रहा था। उसकी मुद्रा गम्भीर थी। डिमि और धनपुर की बातें जब कभी उसके कान से भी टकरा जाती थीं लेकिन उस ओर उसका थोड़ा-सा भी ध्यान नहीं गया था ।
आकाश में फैली चाँदनी और जंगल के अन्धकार के बीच से आगे बढ़ती हुई fish reस्मात् एक स्थान पर रुक गयी । बोली वह :
" आप लोग यहीं रुकें, गोसाईजी । मैं माणिक बॅरा वग़ैरह को जाकर बुला लाती हूँ ।"
इस बार सबके सब आमने-सामने खड़े हो गये । किसी के मुँह से बात नहीं निकल रही थी । सभी अपनी-अपनी भावनाओं में डूबे हुए थे, सभी एक-एक खम्भे की तरह खड़े थे । और क्या कहा जाये, किसी ने एक बीड़ी तक भी नहीं सुलगायी।
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130 / मृत्युंजय