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________________ में? तुम्हें मैं अपने से अलग नहीं मानती । आओ, मेरे पास बैठो ताकि मैं तुम्हें अपने दिल में उतार सकूं। अगर तुम कभी किसी मुसीबत में फँस भी जाओगे तो तुम्हारे प्राण मेरे ही साथ होंगे। और जब तुम मुझमें रहोगे तो फिर तुम्हें किसी प्रकार का भय भी नहीं रहेगा ।" धनपुर मुसकरा दिया । बोला : "तुमने तो तेजीमला के क़िस्से की याद दिला दी, जिसमें वह पेड़, कमल और न जाने क्या-क्या बनती है। ऐसे क़िस्सों में ही किसी प्रेमी का दिल कोई प्रेमिका छुपाकर या चुराकर रख सकती है। वास्तविक जीवन में यह सब कहीं नहीं होता ।" fsfम ने बात को मानो झुठलाते हुए कहा, "कभी-कभी क़िस्से भी सच लगते हैं । क़िस्सों में भी जो अपना इष्ट होता है उसे कभी मारा नहीं जाता । वह तो जीवित रहता ही है। विजयी भी वही बनता है। कितने ही क़िस्से हैं जिनमें हाऊँमाऊँ खाऊँ करता हुआ राक्षस खोजता फिरता है आदमी को ही, लेकिन अन्ततः मारा जाता है वह राक्षस ही, आदमी नहीं। ख़ैर, जाने भी दो, जानते हो इस गाँव के लोगों से अभी तक अच्छी तरह घुल-मिल भी नहीं पायी हूँ ।" "इन दो दिनों में मैंने यहाँ क्या पाया है, तुम इसे सोच भी नहीं सकतीं । हमारे साथ और हमारे बीच हज़ारों बाधाएँ हैं—जिन्हें हम जानते हुए भी दूर नहीं कर पाते । तुम मिकिर हो तो मैं कछारी, डिलि गारो है तो रूपनारायण कैवर्त । हम सब अब तक असमिया भी नहीं बन पाये हैं, एक अच्छा आदमी बनना तो बहुत दूर की बात है । तुम इतने दिनों से गारों के गाँव में हो लेकिन तुम्हारे दिल में अब तक यह बात बैठी है कि तुम एक मिकिर लड़की हो। इसी तरह, वह भी अपने को भूल नहीं पाते । यह सब तभी बदलेगा जब हम आज़ाद होंगे और वर्तमान व्यवस्था दम तोड़ेगी ।" "कहते तो ठीक ही हो ।” डिमि ने हँसते हुए कहा, "लेकिन इस जन्म में यह सब मुमकिन नहीं ।" "इसे इसी जन्म में बदलना होगा। अगले और उससे अगले जन्म के लिए यह सब छोड़ना ठीक नहीं ।" धनपुर ने उत्तर दिया और वह सन्तरे का छिलका उतारने लगा। उसकी कुछेक फाँकें डिमि को बढ़ाते हुए उसने कहा : "तुमने इन दिनों में मेरी जितनी सेवा की है, उसे मैं मरते दम तक नहीं भुला सकूंगा। लेकिन तुम्हें सामने पाकर न जाने क्यों, सुभद्रा से मिलने की मेरी इच्छा अब और अधिक बढ़ गयी है । तुम शायद नहीं जानतीं, ऐसा क्यों हुआ है ? उससे अगली बार मुलाक़ात नहीं हो पायगी -- मुझे ऐसा लगने लगा है ।" धनपुर का गला सूख गया था । fish का दिल भी बैठ गया । वह धनपुर को दिलासा देती हुई बोली : 104 / मृत्युंजय
SR No.090552
Book TitleMrutyunjaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBirendrakumar Bhattacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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