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प्रेम में पगा हाड़-मांस का एक जिन्दा लोथड़ा-भर है, बस ।
-रूपनारायण से उसकी क्या तुलना ! लेकिन 'नहीं, यह नारी है । नारी होने के बावजूद वह कली दीदी की तरह नहीं है, पर क्या यही कुछ कम है कि डिमि उसे इस रूप में प्यार करती है, अब भी ?
धनपुर इस बात को अच्छी तरह समझता था कि इस काम को पूरा करने के बाद अपने को छिपाये रखना बहुत ही मुश्किल होगा। फौजियों ने अगर मायङ को घेर रखा है तो वहाँ से बच निकलना भी तो आसान नहीं होगा। फ़ौजियों के हाथ अगर मौत न भी हो तो फाँसी से कौन बचा सकता है भला ! उसे भी कुशल कोंवर की तरह पकड़ लिया जायेगा । कुशल को फाँसी दे दी जायेगी, यह भी तय है। क्या पता, सुभद्रा से भी भेंट हो या न हो ! भिभिराम उसके बारे में बताता हुआ अचानक चुप क्यों हो गया था ? क्या फिर उस पर कोई मुसीबत आ पड़ी? __ वह मन ही मन हंसने लगा : इसमें छिपाने की कौन-सी बात है भला? फिर यह सब सोचने से क्या लाभ ? अभी पूरे तेईस घण्टे बाक़ी हैं । कल रात सात बजे से पहले मिलिटरी एक्सप्रेस तो आयेगी नहीं ! इम समय डिमि से केवल बातचीत-भर करने का काम है। रूपनारायण गुवाहाटी के स्टेशन मास्टर से गुप्त सूचना जुटा चुका है। कल पूरी गाड़ी में मिलिटरी ही मिलिटरी होगी। और ममय-ठीक सात बजे । घटना-स्थल पर जाने और वहाँ से लौटने आदि के वारे में रूपनारायण से सारी बातें हो ही चुकी हैं, सब कुछ निश्चित हो चुका है।
इन दो दिनों में डिमि से हुई मुलाक़ात उसे बहुत सुखद लगी। डिमि कपिली है और सुभद्रा कलङ । यहाँ कपिली और कलङ दोनों मिलकर एक हो गई थीं। दोनों का जल इस संगम-स्थल पर एक दूसरे में मिल गया था।
"खड़े-खड़े इस तरह क्या सोच रहे हो ?" कहती हुई डिमि कुछ देर तक धनपुर को इस तरह खोयी-खोयी देखती रही। फिर ख द ही बोली : ___"कह नहीं सकती, तुम्हारे साथ इस तरह फिर कभी भेंट होगी या नहीं। अगर कहीं स्वर्ग है तो वहाँ तुमसे भेंट होगी ही। वहाँ, स्वर्ग में तो गारो, असमिया, कछारी, मिकिर का भेद नहीं होगा।" वह ओस में भीगी दूव पर बैठ गयी और धनपुर के उत्तर की प्रतीक्षा करने लगी।
"अरे, स्वर्ग-नरक सब इसी संसार में है। लेकिन मुझे पाने की इच्छा तुम्हारे मन में क्यों बसी है ? तुम्हारा मरद तो बहुत ही अच्छा-भला आदमी है। मुझमें तो कुछ भी नहीं । वस, भविष्य के लिए सपना ही तो बचा है।"
धनपुर की आवाज़ बैठ गयी थी। डिमि ने कहा :
"यह ठीक है कि मेरा अपना मरद है, लेकिन तुम्हारी तरह निडर, सीधेसच्चे और दुःख को दुःख न समझकर आगे बढ़नेवाले कितने जन हैं इस दुनिया
मृत्युंजय | 103