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________________ भोग-विलास का ऐंद्रिक जगत है, सामंती समाज द्वारा परिचालित, जो दिखाई देता है। पर आंतरिक-बाह्य मूल्यों का समान विकृत-संसार है। मूल्य-मर्यादाएँ टूटी हैं, एक विकारग्रस्त समय है, जहाँ हिंसा, तृष्णा, वैमनस्य, मिथ्याचार आदि का प्राधान्य है। कबीर के लिए शांकर वेदांती माया-व्याख्या बहुत उपयोगी नहीं प्रतीत होती, जहाँ जगत् को मिथ्या कहा गया। एक सजग कवि के रूप में कबीर सर्वप्रथम विचार-भूमि बनाते हैं, जिसे वे 'सही दृष्टि' कहते हैं और फिर आचार-संहिता पर आते हैं। कबीर ने जीवन को संग्राम रूप माना है और गुरु को शूरशिरोमणि रूप में देखा है। यहाँ कर्महीन वैराग्य, परमपलायन, एकांतवास, वैयक्तिक मोक्ष के लिए स्थान नहीं है। ज्ञान के लिए जिस मार्ग पर चलना है, वह 'असिधावन' है। आत्मसंघर्ष से गुज़रता प्रतिबद्ध व्यक्ति शूरवीर है-वही सच्चा भक्त है : सूरा तबही परषिये, लडै धणी के हेत, पुरिजा-पुरिजा हुवै पड़े, तऊ न छाडै खेत। इस प्रकार मध्यकालीन सामंती युद्ध को कबीर उच्चतर मूल्यों की परिणति देते हैं। ज्ञान-भक्ति मार्ग सरल नहीं है, यह बलिपंथी का मार्ग है-विकारों से निरंतर जूझना : काम, क्रोध सूं झूझणां, चौड़े मांड्या खेत। कबीर के लिए वास्तविक युद्ध इंद्रियों से है, जिनका राजा मन है। विकारों के स्वामी मन को नियंत्रण में करने के लिए तप-साधना मार्ग का आग्रह किया जाता है। अहंकार और मन का निकट संबंध है, इसलिए दोनों पर नियंत्रण आवश्यक है। गीता में इंद्रियाँ, मन, बुद्धि, आत्मा और सर्वोपरि का जो क्रम है, वह एक प्रकार से उन्नयन का प्रयत्न है। माया विकारों का रूप है, मन जिसके नियंत्रण में है और कबीर के लिए माया पापिनी-मोहिनी है जो किसी को नहीं छोड़ती : रमैया की दुलहिनि लूटा बजार, सुरपुर लूटि, नागपुर लूटा, तिहूं लोक मच्या हाहाकार । कबीर महाठगिनी को पहचानते हैं और इससे मुक्ति का उपाय खोजते हैं-मन, इंद्रिय, वासना पर नियंत्रण इसका प्रथम चरण है। विकार अहंकार से उपजते हैं, इसे कबीर जैसा आत्मविश्वासी स्वाभिमानी कवि-संत जानता है। वे कहते हैं कि अहंकार के विलयन (सूफ़ियों में हस्ती का फना होना) के बिना सत्य से साक्षात्कार संभव नहीं: मैमंता मन मारि रे, नान्हां करि करि पीसि, तब सुख पावै सुंदरी, ब्रह्म झलकै सीसि। जिस अहंकार को विकारों के कारक रूप में कबीर देखते हैं, उसके विलयन की व्याप्ति लोक से लोकोत्तर तक है। अहंकार सामंती समाज का अवगुण है-जिसे राजमद, सत्तामद आदि कहा गया। मरणशील शरीर है, फिर अहंकार कैसा ? बार-बार अनेक रूपों में कबीर ने नश्वरता का उल्लेख किया है, चेतावनी के लिए : केश जलते हैं, घास की तरह, अस्थियाँ लकड़ी की तरह। पर क्षणिक संचारी श्मशान ज्ञान से कुछ नहीं होगा, स्थायी समाधान पाना होगा। अहंकार के विषय में कबीर की तीखी टिप्पणी : फिरत कत फूल्यौ फूल्यौ, जब दस मास उरध मुखि होते, सो दिन काहे भूल्यौ । अहंकार से मुक्ति, उच्चतर मूल्य धरातल पर जाने का प्रथम सोपान है और यह सामाजिक अर्थ में लोक 98 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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