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________________ बार-बार कई रूपों में आता है, और इसे उनके समाजदर्शन का मूलाधार कहा जा सकता है, जिसे गढ़ने में उन्होंने श्रम किया । ज्ञान-प्राप्ति के लिए संपूर्ण भक्तिकाव्य में आलोकदाता गुरु का महत्त्व है, पर कबीर में वह विशिष्ट स्थान पर है। यह कर्मकांडी छद्मधारी पुरोहितवाद को ललकारता विवेकसंपन्न वर्ग है, सच्चा ज्ञानी । कबीर ने इसे मध्यकालीन विकल्प के रूप में देखा क्योंकि पोथियाँ जानकारी देती हैं, पर प्रकाश के लिए सही गुरु चाहिए, जो 'विवेकी दृष्टि' देता है । फिर तो आगे की राह तय की जा सकती है। यह अकारण नहीं कि कबीर ने गुरु को गोविंद ( विधाता ) से श्रेष्ठतर स्थान दिया । 'साखी' 'गुरुदेव कौ अंग' से आरंभ होती है और यहाँ गुरु परिभाषित है - वह 'सतगुरु' है, जिसकी परंपरा सिख धर्म तक फैली हुई है। सतगुरु सगा, शुभेच्छु है : सतगुरु सवांन को सगा, सोधी सईं न दाति, हरिजी सवान को हितू, हरिजन सईं न जाति । गुरु मनुष्य को देवता बनाता है - मूल्य - समुच्चय का प्रतीक । वह दृष्टि देता है - हम अंधकार से प्रकाश में आते हैं। एक दोहे में कबीर ने 'कलियुग' का उल्लेख किया है, जिससे जाहिर है कि मध्यकाल में गुरु की मर्यादा में कमी आई थी क्योंकि वह आडंबर युग था । उन्होंने सतगुरु को शूरवीर कहा जो चेतना को ज्ञान- बाण से उद्दीप्त करता है । चेतना भटक रही थी, गुरु ने चेतना का रूपांतरण कर दिया : पीछे लागा जाइ था, लोक वेद के साथि, आगे थैं सतगुरु मिल्या, दीपक - दीया हाथि । गुरु जाति-पाँति सब मिटा देता है, समभूमि देता है। कबीर ने सतगुरु के माध्यम से ज्ञान - प्रेम की सम्मिलित भूमि का उल्लेख किया है : सतगुरु हम सूँ रीझि करि कया एक प्रसंग, बरस्या बादल प्रेम का भीजि गया सब अंग । मध्यकाल में गुरु-शिष्य संबंध लड़खड़ाए क्योंकि विद्या का व्यवसाय होने लगा था, वह अपने ज्ञान-मार्ग से भटक गई थी । सात्त्विक, मूल्य - आचरित ज्ञान का स्थान वाचाल व्यावसायिक पंडिताई ने ले लिया था । गुरु-शिष्य के लड़खड़ाते संबंधों को ध्यान में रखकर, कबीर ने उन्हें परिभाषित किया : दाता-ग्रहीता दोनों योग्य होने चाहिए, नहीं तो दुर्घटना होगी। गुरु अज्ञानी तो चेला महाअज्ञानी : जाका गुरु भी अंधला, चेला खरा निरंध, अंधहि अंधा ठेलिया दोनों कूप पडंत । अथवा ना गुर मिल्या न सिष भया, लालच खेल्या डाव, दोनों बूड़े धार में, चढ़ि पाथर की नाव । कबीर जिस आलोक से उच्चतर मूल्यों का निष्पादन करना चाहते हैं, उसका प्रस्थान ज्योति-रूप गुरु है, जिसकी विराट परंपरा भारतीय वाङ्मय में रही है। मध्यकाल में, कबीर के लिए, वह छद्म का वरणीय विकल्प है, विवेक का प्रतिनिधि, सच्चा ज्ञानी, प्रेरणा पुरुष । ज्ञान-मार्ग की बाधाओं का संकेत करते हुए, कबीर ने जो अध्यात्म - लोक रचना चाहा हैं, उसकी समझ भी आवश्यक है। समय जैसा है, वैसा है, उससे पलायन भी उचित नहीं और मार्ग इसी के भीतर से खोजना होगा। कबीर ने एक व्यापक शब्द का प्रयोग किया है, जिसे 'माया' कहा गया और जिसके अनेक रूप हैं। एक शरीर-केंद्रित कबीर : जो घर फूँकै आपना चलै हमारे साथ / 97
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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