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________________ कर्णधारों पर बराबर की चोट करते हैं, जो आपस में लड़ते-झगड़ते हैं। उनका कहना है कि वे सत्य से बहुत दूर हैं क्योंकि मिथ्याडंबर-ग्रस्त हैं, कथनी-करनी में फाँक है : दिन को रोजा रहतु हौ, राति हनति हौ गाय अथवा जो तोहरा को ब्राह्मन कहिए, तो काको कहिए कसाई । कबीर हर प्रकार के कठमुल्लेपन पर आक्रमण करते हैं क्योंकि मिथ्याचार सत्य-प्राप्ति के मार्ग में बड़ी बाधा है। कबीर ने मुल्ला - काज़ी, बाँभन-पुरोहित वर्ग के प्रति अपना आक्रोश व्यक्त किया है क्योंकि वे समाज को सही दिशा में नहीं ले जाते। उनकी ऐसी विचित्र कर्मकांडी व्यवस्था है, जहाँ आचार-विचार के लिए अवसर ही नहीं है, जैसे। यह आक्रमण यदि कोरा भाववादी आक्रोश होता तो अपने समय में ही चीख - चिल्लाकर समाप्त हो जाता । पर कबीर ने इसे व्यापक वैचारिक आधार पर देखा-परखा, तब किसी तात्त्विक निष्कर्ष पर पहुँचे । उनके मन में भी प्रश्न है कि आखिर संघर्ष क्यों ? वे जानते हैं कि इसके मूल में धर्म की विकृति है, जो 'ज्ञान' के स्थान पर कर्मकांड में उलझा है। ऐसे अवसरों पर सर्वाधिक आहत वह जाग्रत विवेक होता है, जो मानवता का मूलाधार है । मानव सभ्यता-संस्कृति की इतनी लंबी यात्रा इसी विवेक के सहारे तय की है। कबीर दोनों जातियों के बहुरुपिया धर्मगुरुओं पर आक्रमण करते हुए, उन्हें बेनकाब करते हैं, इस अर्थ में कि उनका मिथ्याडंबर बताते हैं । कबीर कहते हैं कि ईंट-पत्थर का मकान वास्तविक मस्जिद है ही नहीं । मानव शरीर ही सच्ची मस्जिद है : कहु मुल्ला बांग निवाजा, एक मसीति दसो दरवाज़ा। प्रश्न के साथ उत्तर भी यहाँ है रे उसी प्रकार वे पंडितों से कहते हैं : पंडित देखहु मन में जानी, कहु धौं छूति कहाँ से उपजी तबहिं छूति तुम मानी । आश्चर्य यह है कि सब व्यर्थ के कर्मकांड में उलझे हैं : पंडिआ कवन कुमति तुम लागे, बूड़हुगे परिवार सकल सिउँ राम न जपहु अभागे । इसके विपरीत वे आलोकदाता सच्चे गुरु को प्रतिष्ठित करते हैं, जो सच्चे ज्ञान की ओर ले जाता है । I जहाँ तक जातीय सौमनस्य का प्रश्न है, कबीर के समाजदर्शन में कोई राजनीतिक समाधान नहीं है कि पंथ निरपेक्षता का 'सेक्युलर' नारा लगाया जाय। एक सजग समाजशास्त्री की तरह वे प्रश्न की गहराई में उतरते हैं और स्थिति का विवेचन करते है। ध्यान देना होगा कि कबीर का आक्रोश उन कर्मकांडी पुरोहित - शक्तियों पर है, जो धर्म का नियमन करना चाहती हैं। मुल्ला - पंडित दोनों समान दोषी हैं और जब तक समाज पर इनका नियंत्रण है, स्थिति में बदलाव कठिन है क्योंकि वे सांस्कृतिक सौमनस्य में बाधा हैं। जातियों के बहुजन समाज में संवेदनशील कबीर की आस्था है, इसलिए वे उसे सहानुभूति देते हैं और उनके लिए ज्ञान - प्रेम समन्वित मार्ग की खोज करते हैं। प्रश्न निहित स्वार्थ वाले आडंबरी वर्ग से है और समाधान बहुसंख्यक सामान्यजन के लिए है। इसलिए वे समाज में व्याप्त कुरीतियों पर आक्रमण करते हैं क्योंकि वर्ग-भेद के साथ वर्ण-भेद भी है। वे प्रश्न करते हैं कि पंडितजन, बताओ कबीर : जो घर फूँकै आपना चलै हमारे साथ / 93
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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