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________________ मी शब्द भी आया है। काशी मध्यकाल में भी पंडित-नगरी थी, अपने अतीत गौरवशाली और किसी अर्थ में अहंकार-परिचालित भी। जब अतीत अधिक प्रासंगिक नहीं रह जाता और वर्तमान की वास्तविकता सामने होती है, तो पुस्तकीय ज्ञान जाआ-धर्म जैसा पलायन कर जाता है। मध्यकाल की काशी में, ज्ञान के साथ एक मा कर्मकांड पनप रहा था, जहाँ अंधविश्वास, पाखंड, छद्म, जड़ता का परिवेश निर्मित हो चला था। शंकर की नगरी काशी के लिए अपने विद्या-गौरव की रक्षा करना भी कठिन था (मोतीचन्द्र : काशी का इतिहास, पृ. 202)। तुलसी ने 'कवितावली' के अंत में महामारी के माध्यम से इसका उल्लेख किया है। कबीर ने काशी के इस विकत वातावरण को देखा-समझा और उसके प्रति गहरा क्षोभ व्यक्त किया। यह असंतोष उनकी कविता का समाजशास्त्र समझने के लिए आवश्यक है। कबीर निश्चय ही प्रखर मेधा के प्रतिभा-संपन्न व्यक्ति रहे होंगे, क्योंकि रचना में वैचारिकता और संवेदन का प्रभावी संयोजन हुआ है। वस्तुओं-दृश्यों के आर-पार देख सकने की क्षमता जिस धारदार पैनी दृष्टि की माँग करती है, वह कबीर के पास भरपूर है। कबीर विनय भाव से स्वीकारते हैं कि : 'मसि कागद छूयो नहीं, कलम गह्यौ नहिं हाथ' । जिस साधारण परिवार में वे विकसित हुए, वहाँ किसी भी प्रकार के शास्त्र-पांडित्य-ज्ञान के लिए अवसर ही कहाँ था ? पर गुरु के चयन में उन्होंने भूल नहीं की, जिसे लेकर भी कई प्रकार की चर्चाएँ हैं, जिनमें एक यह कि वे रामानन्द के 'हठात् शिष्य' बने थे और शिष्यत्व-ग्रहण के लिए गंगा की सीढ़ियों पर लेट गए थे। रामानन्द यद्यपि रामानुजाचार्य की परंपरा में स्वीकार किए जाते हैं, पर सभी विद्वानों ने भारतीय मध्यकाल में उनकी ऐतिहासिक भूमिका का उल्लेख किया है जिनके बारह शिष्यों की सूची भक्तमाल में दी गई है। रामानन्द की उदार दृष्टि का विवेचन करते हुए आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है : “उपासना के क्षेत्र में ही वे जाति-पाँति के बंधन को अस्वीकार करते थे।...उनके मत से गुरु को आकाशधर्मी होना चाहिए जो पौधे को बढ़ने के लिए उन्मुक्तता दे, न कि शिलाधर्मी जो कि पौधे को अपने गुरुत्व से दबाकर उसका विकास ही रोक दे' (हिंदी साहित्य की भूमिका, पृ. 48)। प्रखर कबीर ने अपने तेजस्वी गुरु से उदार पंथ की प्रेरणा पाई, और शास्त्र के स्थान पर अनुभव-ज्ञान के सहारे रचना-मार्ग में अग्रसर हुए। कबीर की कविता कई दृष्टियों से कठिनाई उपस्थित करती रही है। जीवनी के अतिरिक्त उनकी रचनाओं की प्रामाणिकता को लेकर भी विद्वान् एकमत नहीं है। 'कबीर बीजक' को मूल ग्रंथ रूप में स्वीकार किया जाता है, पर वस्तुस्थिति यह हाक कबीर अपने दो ट्रक व्यक्तित्व से इतने जनप्रिय हए, कि मौखिक परंपरा बढ़ती रहा और भक्तजन उसमें अपनी ओर से भी जोड़ते-घटाते गए। गुरु नानक के श्री गुरुनाथ साहिब में भी कबीर के दोहे-पद संकलित हैं। श्यामसुंदरदास, हजारीप्रसाद विवदा, रामकुमार वर्मा, पारसनाथ तिवारी, शकदेव सिंह से लेकर जयदेव सिंह-वासुदेव कबीर : जो घर फूंकै आपना चलै हमारे साथ / 91
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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