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में पार्थक्य हो सकता है, पर उनका समवेत स्वर एक ही गन्तव्य तक जाना चाहता है-उच्चतर मूल्य-संसार : जाति-पाँति पूछै नहिं कोई, हरि को भजै सो हरि को होई। इस दृष्टि से भक्तिकाव्य अपने समय का समाधान सांस्कृतिक स्तर पर खोजता है, मध्यकालीन शरीरवाद, मिथ्याचार, आडंबर को चुनौती देता हुआ। उसका सर्वाधिक आक्रोश उस सामंतवाद-समर्थित कर्मकांडी पुरोहितवाद के प्रति है, जिससे आचरण की शुद्धता नेपथ्य में चली जाती है। पाथर पूजने से हरि नहीं मिल जाते; अगोचर इन्द्र के स्थान पर, सामने उपस्थित गोवर्धन को श्रद्धा-सुमन अर्पित करो। कबीर-सूर की अवधारणाएँ सतही तौर पर देखने से विरोधी भी प्रतीत हो सकती हैं, पर गंतव्य में अधिक अंतर नहीं है। भक्तिकाव्य ने अपने समय में जातिविहीन सहज प्रेमपंथ की परिकल्पना की, जिसका उदात्त रूप भक्ति है, जहाँ सीधे संवाद स्थापित किया जा सकता है, किसी मध्यस्थ की आवश्यकता नहीं है। बल ज्ञान-विवेक पर है जिससे हम अंधकार से प्रकाश में आते हैं : संतो भाई आई ग्यान की आँधी अथवा रामकृपा भवनिसा सिरानी, जागे फिरि न डसैहौं। ज्ञान-विवेक सर्वोपरि हैं, जिन्हें निष्काम प्रेम से संयोजित कर भक्ति का रूप दिया गया। सार्थक रचना, जो तीन-चार शताब्दियों तक सक्रिय रही, उसे लेकर वाद-विवाद स्वाभाविक है। पर क्या यह उसकी असंदिग्ध स्वीकृति नहीं कि भक्तिकाव्य वृहत्तर समाज को उद्वेलित-आंदोलित करता है, और लोग उसे अपने ढंग से देखते रहे हैं। मैं अपनी सीमाओं से परिचित हूँ और अपनी लघुता को ध्यान में रखकर मैंने भरसक प्रयल किया कि कोई दावा करने की भूल न करूँ। पर विनय भाव से स्वीकारूँ कि भक्तिकाव्य मुझे संवेदनात्मक ज्ञान के धरातल पर गहराई से मथता रहा है और मुझे लगा कि उसके कुछ पक्ष आज भी विचारणीय हैं। रचना अपने समय से बँधी होती है, पर जितना संभव होता है, वह उससे बाहर भी निकलती है और इस दृष्टि से समय की सीमाएँ रचना की भी सीमाएँ बन जाती हैं। भक्तिकाव्य को इस परिप्रेक्ष्य में देखने पर, उसके साथ अधिक न्याय किया जा सकता है और उसके लोकवादी-मानववादी स्वर की सही पहचान हो सकती है। जिसे लोकोत्तर अध्यात्म आदि कहा जाता है, वह वास्तव में मानव-मूल्यों का उच्चतम संसार है, जिसकी परिकल्पना भक्तिकाव्य ने की और दर्शन-विचार-संवेदन के संयोजन से उसे रूपायित किया। कर्मभरे चरित्रों के माध्यम से उसे चरितार्थता दी और मर्यादा पुरुषोत्तम, लीला-पुरुष कृष्ण को वैकल्पिक महानायक के रूप में प्रतिष्ठित किया। सहयोगी पात्र भी संसर्ग से व्यक्तित्व पा जाते हैं। सब कुछ कलाकृति रूप में विन्यस्त हुआ, यह उल्लेखनीय है। पुस्तक मेरी चेतना में थी क्योंकि यह प्रश्न मुझे बार-बार उद्वेलित करता है कि आखिर रचना की सामाजिक-सांस्कृतिक भूमिका का स्वरूप क्या है ? वह किस रूप में
निवेदनम् / 13