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________________ समर्पण भाव से कृष्ण को सहज ही प्राप्त कर लेती हैं : ढूँढ़े फिरे तिरलोक में साख सुनारद 'लै कर बीन बजा वैं/ ताहि अहीर की छोहरियाँ, छछियाँ भर छाछ पै नाच नचा वैं । परमभक्त नारद जिनके नाम पर नारदीय भक्तिसूत्र की रचना हुई, तीन लोकों में भटकते हुए, जिस परमेश्वर को प्राप्त करना चाहते हैं, उसे अहीर की छोहरियाँ नाच नचाती हैं, वह भी थोड़ी छाछ के लिए । भक्ति की जिस रस - सृष्टि में रसखान की रुचि है, वहाँ बल स्नेह-समर्पण पर है, जहाँ सारे भेदभाव समाप्त हो जाते हैं । रहीम ने कई स्थलों पर उन्मुक्त शृंगार का वर्णन किया है, पर इसकी तुलना में रसखान अधिक सावधान प्रतीत होते हैं । वे सामंती समाज से असंतुष्ट हैं और कहा जाता है कि दिल्ली को 'मसान रूप' पाकर उन्होंने उसका परित्याग किया था : देखि गदर हित साहबी, दिल्ली नगर मसान / छिनहिं बादसा बंस की, ठसक छोरि रसखान ( प्रेमवाटिका, दोहा 48 ) । भक्ति की ओर कवि का प्रयाण विलास के प्रति असंतोष से उपजा है, और अपनी भक्तिभावना से उन्होंने एक ऐसे प्रेम-संसार का निर्माण किया, जहाँ जातीय सौमनस्य की संस्कृति के साथ, उच्चतर प्रेम- संकल्प भी है। सूरदास ( 1478-1581 ) की सामाजिक चेतना और उनके समाजदर्शन की चर्चा विस्तार से होगी। पर एक प्रश्न विचारणीय कि मौखिक परंपरा से जुड़े इस श्रेष्ठ कवि ने वल्लभ संप्रदाय के दार्शनिक पक्ष को अपनी रचना में ऐसे रस-धरातल पर विलयित कर लिया कि आज यह प्रश्न भी लगभग गौण हो गया है । कविता पहले कविता है और कुछ बाद में । सूर की जीवन-गाथा के संदर्भ में यह प्रश्न बार-बार उठता है कि वे जन्मांध थे अथवा नहीं ? वार्ता साहित्य ने चमत्कारों की चर्चा करके कई प्रश्नों को और उलझा दिया। सूरदास, नेत्रहीन के लिए करुणा-मिश्रित सम्मानजनक शब्द के रूप में भी प्रचलित है। बीसवीं शताब्दी में अवध क्षेत्र में बच्चू सूर हुए हैं जो रामचरित मानस के व्याख्याकार थे, एक-एक दोहा - चौपाई के कई अर्थ करते । ऐसा प्रतीत होता है कि सूर की नेत्र - ज्योति उनसे कुछ समय के अनंतर विदा लेती है, अंग्रेजी कवि मिल्टन की तरह । इस बीच उन्होंने जो जीवनानुभव प्राप्त किया था, उसका उपयोग उन्होंने काव्य में किया, जैसे दृश्यों का रेखांकन, शेष के लिए उनकी प्रतिभा सहायक थी । वल्लभाचार्य के संपर्क में आकर सूर को नया बोध हुआ, इसका उल्लेख भी किया जाता है। सूर का यह नया रूपांतरण था और दैन्य के स्थान पर कृष्णलीला के रसात्मक वर्णन में उनकी अधिक रुचि हुई । यह निवृत्ति से प्रवृत्ति की ओर प्रयाण है, जिससे रचनाशीलता को नई प्रयोजनवती भूमिका प्राप्त होती है । 'अब हौं नाच्यौ बहुत गोपाल' जीवन के प्रति जिस विराग भाव का संकेत है, वहाँ उच्चतर धरातल पर जाने का रचना - संकल्प भी ध्वनित होता है । एक प्रकार का मनोजागरण, जिसके सर्वोत्तम प्रतिनिधि रूप में तुलसीदास की 'विनयपत्रिका' को प्रस्तुत किया जा सकता है। सूरदास से अकबर की भेंट हुई थी, अथवा नहीं, यह विवाद का विषय हो सकता है और इसे प्रमाणित कर पाना भी सरल नहीं । पर 80 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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