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________________ क सीमा तक ही। मराठी संत नामदेव (1270-1350) ज्ञानेश्वर के मित्र और उनके मार्ग को विकास देने का कार्य उन्होंने किया। ज्ञानेश्वर को भ्रष्ट संन्यासी या कहकर अपमानित किया गया, पर अपनी प्रतिभा से वे समाज में स्वीकृत बड़े भाई निवृत्ति नाथ को गुरु स्वीकारते हुए, उन्होंने ज्ञानेश्वरी में बार-बार का सादर स्मरण किया है। संत ज्ञानेश्वर की भावार्थ दीपिका ज्ञानेश्वरी चिंतन और काव्य के संयोजन से उपजी गीता की अद्भुत टीका है, जिसका व्यवहार पक्ष भी है, जिसे सामान्यजन सरलता से समझ सकते हैं। इसमें कवि का कर्तव्य-बोध सक्रिय है, समाज का आवाहन करता हुआ कि और ऊपर उठो, इंद्रियों पर विजय प्राप्त करते हए। बातें लोकभाषा मराठी में कही गईं, लोक छंद ओवियों में (सात सौ अनुष्टुप श्लोक नौ हजार ओवियों में)। संस्कृत के पंडित होकर, उन्होंने लोकभाषा अपनाई, इससे उनकी सामाजिकता का पता चलता है। प्रतिभा में इतना गहरा आत्मविश्वास और संकल्प के प्रति ऐसी सजगता कि पंद्रह-सोलह वर्ष की आयु में ज्ञानेश्वरी । ज्ञानेश्वरी एक प्रकार से गीता की पुनर्रचना है, जिसका महत्त्व ऐतिहासिक भी है, सामाजिक भी। वे लंबी व्याख्या में बार-बार श्रोता-समाज को संबोधित करते हैं, जीवनानुभव को अंतर्भुक्त करते हुए। इसलिए ज्ञानेश्वरी का व्यापक प्रभाव है, समस्त संतकाव्य को प्रेरणा देता और हिंदी में भी उनकी कुछ पद-रचनाओं का उल्लेख विद्वान् करते हैं। ज्ञानेश्वर मध्यकालीन जागरण के स्तंभों में हैं, जिन्होंने अपने समाजदर्शन से समाज को आंदोलित किया। संत ज्ञानेश्वर के समकालीन नामदेव जाति से दर्जी थे और अपने व्यक्तित्व से आदरणीय हुए। ज्ञानेश्वर-नामदेव की निकटता का उल्लेख विद्वानों ने किया है, एक उच्चकुलीन होकर भी तिरस्कृत है और दूसरा साधारण जाति में जन्म लेकर अस्वीकृत। पर दोनों सामान्यजन के लिए भक्ति का मार्ग प्रशस्त करते हैं और उनका प्रभाव दूर-दूर तक है। नामदेव का आक्रोश जाति-वर्ण व्यवस्था पर है, जो भाव-ऐक्य में सबसे बड़ी बाधा है और उनका कहना है कि आडंबर, मिथ्याचार से सच्चा ज्ञान नहीं प्राप्त होता। संत नामदेव के चिंतन को कबीर से लेकर गुरु नानक तक में देखा जा सकता है। उन्होंने अभंगों के माध्यम से सामान्यजन को संबोधित किया। उनका आग्रह मन के शुद्धीकरण पर है और धार्मिक अनुष्ठान-जप-तप, व्रत-पर्व-तीर्थ कोई अनिवार्यता नहीं हैं। उन्होंने बाह्याचार पर आक्रमण किए : जटा-भार, भस्म, त्रिपुंड तिलक, माला सब व्यर्थ हैं। उनकी रचनाओं में लोककल्याण का भाव उन्हें सर्वग्राह्य बनाता है और उसकी सहजता मार्मिक बनती है। उनकी ऐसी स्वीकृति कि 'श्री गुरुग्रंथ साहब' में उनके पद संकलित हैं। नामदेव की भाषा के कई रूप हैं-मराठी, खड़ी बोली, पंजाबी और उर्दू के शब्द भी। सांस्कृतिक सौमनस्य के भाव से वे दोनों प्रमुख जातियों को संबोधित करते हैं। कई बार नामदेव-कबीर के नाम से भावसाम्य के आधार पर एक ही पद : हिंदू पूजै देहुरा, मुसलमानु मसीत/नामे सोई सेविआ, भक्तिकाव्य का स्वरूप / 65
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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