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________________ कमज़ोर होगा। इसीलिए निर्गुण का आक्रमण सिद्ध-नाथ के क्रम में, हर प्रकार के आडंबर, अंधविश्वास पर है। सगुण का अपना तर्क है कि मन यों ही चंचल है, बिना किसी आधार के वह स्थिर कैसे होगा ? एकाग्रता संभव होगी क्या ? साकारता एक साधन है, पर दुर्भाग्य से कई बार वह साध्य बनकर रह जाती है। जिन मूल्यों के आधार पर चरित्र गढ़े गए, वे मूल्य भुला दिए जाते हैं, मूर्ति-पूजन ही प्रधान हो जाता है, जिसके नियामक पुरोहित होते हैं और पतनशील स्थिति की यही दुर्घटना है। संत भक्तिकाव्य के वर्गीकरण की अपनी कठिनाइयाँ हैं, विशेष रूप से संत को निर्गुणियाँ मानना और भक्ति को साकारोपासना से संबद्ध करना । पर वास्तव में दोनों की सम्मिलित स्थिति है। संतकवियों में पाँच मराठी संत - ज्ञानेश्वर, नामदेव, एकनाथ, तुकाराम, रामदास की विशेष चर्चा होती है, जो तेरहवीं - सत्रहवीं शताब्दी के बीच क्रियाशील रहे हैं। विद्वानों का विचार है कि मराठी भक्ति साहित्य में सगुण-निर्गुण का वैसा विभाजन नहीं है, जैसा अन्य भाषाओं में दिखाई देता है। मराठी संत दोनों रूपों को स्वीकारते हैं, साकार से आरंभ कर निराकार तक पहुँचते हैं- भक्ति - ज्ञान को संयोजित करते हुए । यहाँ संत भक्त लगभग समान अर्थ के वाहक शब्द हैं : ‘महाराष्ट्र के संत भगवान के सगुण और निर्गुण दोनों रूप मानते थे तथा दोनों की समान श्रद्धा से उपासना भी करते थे । सगुण और निर्गुण में भेद या विरोध का अनुभव करना तो दूर रहा, उनमें उन्हें सामंजस्य की अनुभूति होती थी' (भी. गो. देशपांडे : मराठी का भक्ति साहित्य, मुखबंध, पृ. 3) | मराठी संत-भक्ति काव्य की प्रगतिशील सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टि उल्लेखनीय है, यद्यपि इस पर नाथ पंथ का प्रभाव है। इसे बारकरी संप्रदाय कहा गया, जिसका प्रमुख केंद्र है, पंढरपुर | भागवत प्रस्थान ग्रंथ के रूप में है, पर गीता की भी स्वीकृति है । संत ज्ञानेश्वर (1275-1296) ने इक्कीस वर्ष की अल्पायु में ही गीता - भाष्य 'ज्ञानेश्वरी' लिखकर सामान्यजन में प्रतिष्ठा प्राप्त की, जो असाधारण उपलब्धि है । ज्ञानेश्वर का जीवन स्वयं में आंतरिक संघर्ष है, जो ब्राह्मण होकर भी, शूद्रों के समीपी हुए । उनके पिता विट्ठलपंत संन्यासी से पुनः गृहस्थ हुए थे, इसलिए पंडितों में स्वीकृत न हो सके । उनमें परंपरा और विद्रोह का द्वंद्व देखा जा सकता है: एक ओर वेदों की स्वीकृति है, दूसरी ओर भक्ति को वे सभी वर्णों-जातियों के लिए खुला रखना चाहते हैं । यह उनके चिंतन का सामाजिक पक्ष है, जिस ओर सभी का ध्यान गया और सामान्यजन में, निम्न वर्ग में उनके प्रति आदर भाव है । बारकरी पंथ को 'उपेक्षितों का पंथ' तक कहा गया। मराठी संतों की सामाजिक चेतना के संदर्भ में एक प्रश्न यह भी विचारणीय कि वैयक्तिक अनुभव सामाजिकता में कैसे रूपांतरित होते हैं, जिसे मुक्तिबोध ने व्यक्ति-समाज-संवेदन का संयोजन कहा है । यह एक प्रकार का उन्नयन भी है, स्वयं को पार करना, जिससे रचना में उठान आती है । विचारधारा भी इसमें सहायक होती 64 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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