SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 6
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ करती हैं और कई बार उनमें विवरण-वृत्तांत नहीं होते, पर समय की गहरी पहचान होती है। संभव है मुखर वाचालता उनमें कम हो, पर वे समय-समाज के मूल्यांकन में कहीं अधिक सहायक होती हैं, बनिस्पत उनके जो रोज़नामचा अथवा सूचीपत्र होने का दावा करती हैं। तो समय-समाज की अभिव्यक्ति मात्र नहीं, पर उससे टकराने, मुठभेड़ करने का प्रश्न बराबर मुझे उत्तेजित करता रहा। उससे भी बड़ा प्रश्न मुझ जैसे पाठक के लिए यह कि क्या रचना केवल जूझकर समाप्त हो जाती है ? पलायन वह कर ही नहीं सकती, यदि वह सार्थक होना चाहती है, तो। नहीं तो कलावाद के कितने संस्करण रचना में हैं जो आभिजात्य का स्पर्श करके रह जाते हैं। इस बिंदु पर रचना शब्द अथवा कला-क्रीड़ा नहीं प्रतीत होती, वह एक व्यापक संस्कृति के अंश रूप में दिखाई देती है और सभ्यता के गोचर जगत् से आगे निकलकर, मूल्य-स्तर पर सोच-विचार का ईमानदार प्रयत्न भी है। इस अर्थ में भक्तिकाव्य, जिसकी पीठिका में विराट जनांदोलन-भक्ति आंदोलन है, मुझे एक 'प्रतिसंस्कृति' के रूप में दिखाई देता है-नए मूल्य-संसार की खोज करता। भक्तिकाव्य समय के साक्ष्य के साथ, विकल्प का संकेत भी है, जो सांस्कृतिक चिंता का प्रमाण है। समाजदर्शन प्रायः समाजशास्त्र से अंतर्भक्त करके देखा गया है, पर मुझे लगा कि रचना विकल्प की खोज का जो प्रयत्न मूल्य-स्तर पर करती है, उसके लिए समाजदर्शन शब्द का उपयोग किया जा सकता है। इस दृष्टि से यह पुस्तक मेरी पिछली पुस्तक 'भक्तिकाव्य का समाजशास्त्र' का अगला चरण है और इस प्रयत्न में मुझे उन सब विद्वानों से आलोक मिला जो भक्तिकाव्य को वर्तमान समय-संदर्भ में देखते हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने तुलसी के माध्यम से जिस लोकधर्म को रेखांकित किया था, उसे आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कबीर के माध्यम से नया विस्तार दिया। अकादमिक प्रयासों को छोड़ दें, तो फिर उसे नए ढंग से देखने-समझने की पूरी परंपरा विकसित हुई-डॉ. रामविलास शर्मा, विद्यानिवास मिश्र, नामवर सिंह, वियजदेवनारायण साही, विश्वनाथ त्रिपाठी, रमेशकुन्तल मेघ, मैनेजर पांडे, परमानन्द श्रीवास्तव, शिवकुमार मिश्र से लेकर बिलकुल नई पीढ़ी के वीरेन्द्र मोहन, लक्ष्मीचन्द्र, अरुण मिश्र आदि। इन सबसे मैंने सीखने-समझने का प्रयत्न किया, पर लगा कि कहीं-कहीं समाजशास्त्र अधिक प्रभावी हो गया है, इस दिशा में कुछ और भी सोचा जा सकता है। प्रस्तुत पुस्तक इसी अंतःसंघर्ष का प्रतिफल है और आज भी लगता है कि 'अविगति गति कछु कहत न आवै' की स्थिति बनी हुई है। समाजशास्त्र-समाजदर्शन को भक्तिकाव्य में 'काव्यसत्य' की स्थिति प्राप्त हुई है, जिसका निर्माण कवियों की सजग सांस्कृतिक चेतना से हुआ है। भक्तिकाव्य मुझे भीतर-भीतर आंदोलित करता रहा और जब मैं भारतीय संस्कृति और साहित्य का प्राध्यापक होकर एकाधिक बार विदेश गया तो मैंने पाया कि वहाँ निवेदनम् / 11
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy