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________________ प्रस्थान है । प्रतिपादित किया गया कि माया ब्रह्म की शक्ति है, उसी के अधीन, इसलिए शांकर वेदांत का मायावाद प्रासंगिक नहीं प्रतीत होता । जैसे रामानन्द के उदार पंथ से भक्तिकाव्य को नई दिशा मिली, उसी प्रकार वल्लभाचार्य के अनुग्रह सिद्धांत और कृष्ण - भावना से, संपूर्ण कृष्णभक्ति काव्य को नई सर्जनशीलता प्राप्त हुई | पुष्टिमार्ग रागानुगाभक्ति है, रागभाव पर आधारित, वहाँ कर्मकांड अधिक प्रासंगिक नहीं । वल्लभ द्वारा प्रवर्तित पुष्टिमार्ग के आधार पर विट्ठलनाथ ने कृष्णभक्ति कवियों को अष्टछाप का कवि कहा : सूरदास, परमानन्ददास, कुंभनदास, नन्ददास आदि । कृष्णभक्ति का ऐसा उदार पंथ कि वह बंगाल, पूर्वांचल तक फैला - चैतन्य - चंडीदास के माध्यम से और इसमें रहीम, रसखान जैसे मुसलमान भक्त कवियों ने अपना योगदान किया । भक्ति आंदोलन का स्वरूप व्यापक हैं और चिंतन पक्ष से लेकर काव्य तक उसका प्रसार है। वैष्णवमत उसकी पीठिका में उपस्थित है, जिसे विद्वानों ने विभिन्न दृष्टियों से देखा है - शास्त्रीय पक्ष से लेकर उदार सामाजिक भूमि तक । उसकी अनेक शाखाएँ - प्रशाखाएँ बनीं, मत-मतांतर हुए, पर सर्जनशीलता, विशेषतया काव्य का एक समग्र रूप उभरता है, मानवीय उदारता को उजागर करता । वैष्णव धर्म का प्रसार भारत के बाहर भी हुआ और विदेशी विद्वान् भी इसमें रुचि लेते रहे हैं (स्टिवेन जे. रोसेन (सं.) : 'वैष्णविज़्म', 1994 ) । पर भक्ति आंदोलन और भक्तिकाव्य के संदर्भ में कुछ महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठते रहे हैं, जिनमें एक विवादास्पद प्रश्न यह कि इसकी सर्जनशीलता में इस्लाम के आगमन की भूमिका क्या है ? रामस्वरूप चतुर्वेदी ने अपनी पुस्तक 'हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास' में इसकी चर्चा की है, विशेषतया वे आचार्यद्वय रामचन्द्र शुक्ल और हजारीप्रसाद द्विवेदी के दृष्टिकोण पर विचार करते हैं। आचार्य शुक्ल ने 'सूरदास' में 'भारतीय भक्ति के शुद्ध स्वरूप' का उल्लेख करते हुए, इसे रेखांकित किया है कि 'हमारे यहाँ का भक्तिमार्ग भगवान को अनंत, शक्ति, शील और सौंदर्य के अधिष्ठान रूप में इसी जगत् के व्यवहार बीच रखकर चला है' (पृ. 55 ) । इसे वे तुलसी के राम के विवेचन में प्रमाणित करते हैं। पर भक्तिकाल के सामान्य परिचय में वे लिखते हैं : 'इतने भारी राजनीतिक उलटफेर के पीछे हिंदू जनसमुदाय पर बहुत दिनों तक उदासी - सी छाई रही। अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की शक्ति और करुणा की ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग की क्या था' (इतिहास, पृ. 52 ) | आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी 'हिंदी साहित्य की भूमिका' के आरंभ में ही भक्तिकाव्य को भारतीय चिंता के स्वाभाविक विकास के रूप में देखते हैं और कहते हैं कि 'अगर इस्लाम नहीं आया होता तो भी साहित्य का अधिकांश वैसा ही होता ।' नामवर सिंह ने 'दूसरी परंपरा की खोज' में इन दोनों आचार्यों को सामने- सामने रखकर देखा है, उसकी चर्चा भी डॉ. चतुर्वेदी ने की है और इसे वे इतिहास - दृष्टि के अंतर रूप में देखते हैं (पृ. 40 ) । भक्ति आंदोलन का सामासिक स्वर है, इससे इनकार नहीं किया जाता, 58 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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