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________________ करते हैं, जहाँ पुरोहित-पुजारी दृष्टि से हट जाते हैं। आचार्य हजारीप्रसाद के शब्दों में : 'रामानन्द समग्र स्वाधीन चिंता के गुरु थे, उपासना के क्षेत्र में ही वे जाति-पाँति के बंधन को अस्वीकार करते थे, पर अपने किसी भी व्यक्तिगत मत को उन्होंने शिष्यों पर लाद नहीं दिया' (हिंदी साहित्य की भूमिका, पृ. 48)। इसीलिए रामानन्द की प्रखर शिष्य-परंपरा है, जिसका उल्लेख नाभादास के 'भक्तमाल' में मिलता है। इनमें बारह प्रमुख हैं, जिन्हें द्वादश शिष्य कहा गया : कबीर, रैदास आदि। रामानन्द भक्ति के विकास में विशिष्ट स्थान पर हैं और मध्यकालीन भक्तिकाव्य को नया प्रस्थान देते हैं। भक्तिकाव्य में रामानन्द के साथ वल्लभाचार्य का नाम लिया जाता है जिनका महत्त्व कृष्णकाव्य के संदर्भ में है। वल्लभ की जीवनी 'वल्लभ दिग्विजय' से ज्ञात होता है कि वे तैलंग ब्राह्मण थे, पर उनका संबंध काशी नगरी से अधिक था। विष्णुस्वामी की परंपरा में उन्होंने शुद्धाद्वैत तथा पुष्टिमार्ग की प्रतिष्ठा की, जिसके अनुसार सगुण होकर भी ब्रह्म शुद्ध और अद्वैत है। 'तत्त्वदीपनिर्णय' के अनुसार वह पुरुषेश्वर, पुरुषोत्तम है। कृष्ण परब्रह्म हैं और हर स्थिति में विशुद्ध, क्योंकि मायारहित हैं-निर्लिप्त । मायावाद का खंडन करते हुए वल्लभ कहते हैं कि ब्रह्मरूप जगत् सत्य है और जीव उसका अंश मात्र है। दार्शनिक धरातल पर जो शुद्धाद्वैत है, भक्ति के धरातल पर वह पुष्टिमार्ग है और यह प्रपत्ति का नवीनतम रूप है। ईश-कृपा से भक्ति पुष्ट होती है और यही जीव की आकांक्षा होनी चाहिए। डॉ. दीनदयालु गुप्त ने 'अष्टछाप और वल्लभ संप्रदाय' में इसका विस्तृत विवेचन किया है। पुष्टि मार्ग शुद्धाद्वैत की व्यवहार-आधार भूमि है, भक्ति के लिए उपयोगी जिसका सजग सामाजिक पक्ष है, जिस विषय में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का कथन है : 'पुष्टि मार्ग स्त्री-पुरुष, द्विज-शूद्र सबके लिए खुला है। मनुष्य मात्र इसके अधिकारी हैं। इस भक्तिमार्ग में परमात्मा का स्वरूप तो वही लिया गया है जो उपनिषदों के ज्ञानकांड में प्रतिपादित है, पर साधना का आधार शुद्ध प्रेम रखा गया है जो भगवान के अनुग्रह या पोषण से प्राप्त होता है' ( सूरदास, पृ. -72)। वल्लभाचार्य ने 'पुष्टिप्रवाह मर्यादा' में इसका विस्तृत विवेचन किया है। वल्लभाचार्य के चिंतन में श्रीकृष्ण परब्रह्म हैं, सर्वोत्तम गुणों से विभूषित, मनुष्यों में श्रेष्ठतम। इस प्रकार वे निंबार्क की कृष्ण-भावना को स्वीकारते हैं। वल्लभ ने कृष्ण को परम आनंद का स्वरूप माना, जिनके प्रति संपूर्ण भाव से समर्पित होना, जीवन के चरम लक्ष्य को पा जाना है। यहाँ भक्ति ही मोक्ष है, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं । सूर की गोपिकाएँ इसका सर्वोत्तम उदाहरण हैं और रत्नाकर के 'उद्धवशतक' में वे कहती हैं : 'मुक्ति-मुक्ता को मोल-माल ही कहा है जब, मोहन लला पै मन-मानिक ही बारि चुकीं।' प्रवृत्ति मार्ग की स्थापना वल्लभ का आशय है और इसके केंद्र में कृष्ण को रखकर उन्होंने कृष्ण के लीला-संसार को नया विकास दिया, भागवत जिसका भक्तिकाव्य का स्वरूप / 57
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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