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________________ वर्ग की उपस्थिति है। ऐसा नहीं कि सर्जन-संसार में इसका कोई वैशिष्ट्य ही नहीं होता। होता है, पर ऐसी रचनाएँ तब और भी सार्थक होती हैं, जब वे राजाश्रय से बाहर निकलकर, व्यापक समाज में फैल जाएँ। भवन-निर्माण आदि शिल्प-कौशल का संकेत करते हैं, पर जहाँ तक संस्कृति का प्रश्न है, विचार, दर्शन, साहित्य, कला, लोकाचार आदि सही प्रवक्ता बनते हैं। मध्यकाल के संदर्भ में और अन्यत्र भी कई बार अभिजन समाज की संस्कृति (इलीट, एरिस्ट्रॉक्रेसी) को शिष्ट संस्कृति कहकर संबोधित किया जाता है और जनसमाज की संस्कृति को लोकसंस्कृति । सल्तनत काल में जो 'नादिम' था, वह मुगलकाल में दरबारी हुआ, शेष सामान्य वर्ग थे। मेरे विचार से वर्ग-भेद के आधार पर यह विभाजन संस्कृति के समग्र परिवेश को उजागर नहीं कर पाता। संस्कृति एक सामूहिक प्रयत्न है और उसका समग्र रूप ही दृश्य को पूर्णता देता है, उसे खंड-खंड कर देखना उचित नहीं है। इस्लाम जब भारत आया तो उसमें कई तत्त्व सम्मिलित हो चुके थे और इतिहासकारों ने बल देकर कहा है कि भारत में 'इस्लाम का भी भारतीयकरण' हुआ, इस अर्थ में कि उसने यहाँ की सभ्यता-संस्कृति के संस्पर्श से स्वयं को नया विकास दिया और ख़लीफ़ा से मुक्ति पाकर, इसे गति मिली। अकबर ने फतेहपुर सीकरी के मुअज्ज़िम को हटाकर, अपने नाम से खुतबा पढ़ा और इस प्रकार धर्म का 'सर्वोच्च पंच' बना। इससे उलेमाओं के एकाधिकार में कमी आई और शासन अधिक उदार हो सका। इतिहासकारों के विचार में पर्याप्त दम है कि अकबर जैसे उदार दूरदर्शी शासकों ने इस बात का प्रयत्न किया कि जाति-विभेद के बावजूद, भारत में समान नागरिकता के कुछ सूत्र स्थापित हो सकें। सांस्कृतिक संयोजन में उन वर्गों की भूमिका कम महत्त्वपूर्ण नहीं है, जो धर्म-परिवर्तन कर इस्लाम में आए थे। सैद्धांतिक रूप से इस्लाम में जाति-उपजाति की कोई गुंजायश नहीं है, पद-प्रतिष्ठा के आधार पर वर्ग-भेद हो सकते हैं। मध्यकाल में जिसे 'अशरफ' कहा गया, वह भी उच्च वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है और उसमें अरब, तुर्क, अफ़गान, फारसियों के वंश से संबद्ध लोग थे। इन्हें दरबार में स्थान प्राप्त था और वे उच्च पदों पर थे। इसी प्रकार जो लोग द्विजों से धर्म-परिवर्तन कर इस्लाम में सम्मिलित हुए थे, उन्हें कुलीनता के आधार पर उच्च वर्ग में माना गया। इन विशिष्ट वर्गों की तुलना में सामान्यजन, चाहे किसी जाति-बिरादरी के हों, समाज में उनकी स्थिति ठीक नहीं थी। मध्यकाल में साधारण पेशों में लगे लोग श्रमिक की स्थिति में ही थे, जैसे किसान, मजदूर, कारीगर आदि। एक ही पेशे की दोनों जातियों के लोगों में अधिक भेदभाव न था और इसे व्यवसाय की समानता कहा जा सकता है। विचारणीय यह कि मध्यकाल में उस प्रकार का सांप्रदायिक संघर्ष नहीं दिखाई देता, जैसा साम्राज्यवादी समय में। सामाजिक सौमनस्य के निर्माण में राजाश्रय की भूमिका सीमित है, पर धर्म-परिवर्तन कर आए हुए वर्ग के लिए अपने मध्यकालीन समय-समाज और संस्कृति / 43
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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