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हो गया था और चिंतन, कला आदि प्रयासों के लिए अवसर न थे। सत्ता उच्च वर्ग तक सीमित थी और उसका एक विशिष्ट संसार कहा जा सकता है जहाँ पांडित्य आदि के बौद्धिक प्रयत्नों को स्वीकृति थी। होता यों है कि सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना भीतर-भीतर आंदोलित होती है और समय पाकर उसकी अभिव्यक्ति होती है। वैष्णवाचार्यों की परंपरा नाथमनि से स्वीकार कर ली जाय, जो नवीं-दसवीं शती के संधिस्थल के आचार्य हैं, तो बौद्धिक सक्रियता का आभास मिलता है। चार प्रमुख वैष्णवाचार्यों-रामानुज, मध्व, निम्बार्क, विष्णुस्वामी ग्यारहवीं-तेरहवीं शताब्दी के मध्य सक्रिय हैं, जो राजनीतिक दृष्टि से पहले विखंडन और फिर पराभव का समय है। थोड़ा आगे बढ़कर रामानन्द और वल्लभाचार्य (पंद्रहवीं-सोलहवीं शती) का समय है, जिनका व्यापक प्रभाव भक्तिकाव्य पर है। चैतन्य ने, जो वल्लभ के समकालीन हैं, पूर्वांचल में भक्ति चेतना जगाई। महाराष्ट्र के पाँच संत कवि-ज्ञानेश्वर, नामदेव, एकनाथ, तुकाराम और रामदास ने तेरहवीं-सत्रहवीं शताब्दी के बीच अलख जगाने का कार्य किया। अन्य भारतीय भाषाओं में भक्ति की यही सक्रियता विद्यमान है, जिसे जनान्दोलन कहा गया। हिंदी भक्तिकाव्य की समर्थ सर्जनशीलता के साथ प्रायः सभी भारतीय देसी भाषाओं में कविता के ऐसे स्वर हैं जिनसे इस समय को मध्यकालीन जागरण की संज्ञा दी जा सकती है। पन्द्रहवीं शती में असमिया भाषा में शंकरदेव ने भागवत भक्ति को जनप्रियता दी। बंगाल में चैतन्य-चंडीदास का व्यक्तित्व प्रभावी है। रचनाशीलता का आशय जनजागरण से संबद्ध है और सदाशयता-संपन्न सामाजिकसांस्कृतिक उन्मेष यहाँ देखे जा सकते हैं, सुधार-भावना के साथ।
__मध्यकाल किस अर्थ में जागरण का समय कहा जा सकता है, यह प्रश्न विचारणीय है। इसी के साथ यह भी कि जातियों के संवाद की इसमें कितनी और कैसी भूमिका है, तथा इसका समग्र रूप क्या है ? जिसे हम मध्यकालीन समय, समाज
और संस्कृति कहते हैं, उसके बनने में राजाश्रय की भूमिका एक सीमा तक ही हो सकती है। और वह यह कि राज-संरक्षण से उसके संवर्धन में सहायता मिली तथा एक वर्ग-विशेष उस ओर सक्रिय हुआ, जो राजाश्रय से सीधे जुड़ा था। एक प्रमाण यह कि मुगलकाल के बिखराव के बाद राजाश्रय में पलने वाली रचनाशीलता क्रमशः व्यापक जीवन-प्रवाह से कटती गई-देहवादी, अलंकारवादी हो गई : भरे भौन में करत हैं, नैनन ही सौं बात । मध्यकाल में अन्य भाषाएँ-संस्कृत, अरबी, तुर्की, फारसी के साथ देसी भाषाओं की निरंतर विकसित होती सर्जनशीलता प्रमाणित करती है कि सर्जन के लिए सुख-सुविधा बहुत उपादेय नहीं है, संघर्ष भी रचनाशीलता को गति
और दिशा देता है। शब्द जो संस्कृति रचते हैं, उनके मूल में अपने समय से टकराता चिंतन तो होता ही है, पीठिका में परंपरा का सर्वोत्तम भी उपस्थित रहता है। इसी अर्थ में मध्यकालीन सांस्कृतिक परिवेश और उसके निर्माण के गंभीर प्रयत्नों को देखा-परखा जाना चाहिए। राजदरबारों में एक संस्कृति निर्मित होती है, जहाँ विशिष्ट
42 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन