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________________ भारत को गाँवों का देश कहा गया । मध्यकाल में ग्राम देश की मुख्यधारा से अछूते थे और स्वयंसंपूर्ण इकाई होने से नगर से उनका संपर्क कम था । कृषि व्यवस्था पर आधारित ग्राम समाज के खाली समय में कुटीर उद्योग हस्तशिल्प का विकास संभव था, बशर्ते गाँव की आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ उन्हें बाहर का नगर - समाज भी उपभोक्ता के रूप में प्राप्त हो । ग्राम-समाज की दैनंदिन आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए कई सहायक व्यवसाय थे : लुहार, बढ़ई, बुनकर, चर्मकार, कुम्हार, नाई, धोबी, पुरोहित आदि । कठिनाई यह थी कि उपज का मुख्य लाभ उत्पादक को नहीं था, जो मूल श्रमिक अथवा कारीगर था। मुग़ल काल में जब नगर समाज के उपभोक्ता समाज में वृद्धि हुई तो बिचौलियों का व्यापारी वर्ग भी बढ़ा। ग्राम समाज अपनी सामग्री बेचने के लिए विवश था और इसमें अन्न उसका सहायक था क्योंकि यही विनिमय - मुद्रा का कार्य करता था । कृषि और अन्न भारतीय मध्यकाल के विनिमय-माध्यम हैं, मुद्रा के स्थानापन्न । बिचौलिया सस्ते मूल्य पर सामग्री खरीदकर, कहीं अधिक दाम पर उसे नगरों में बेचता था । उद्योग-व्यवसाय को प्रोत्साहन मिलने पर मसाले, कपड़ा, आभूषण आदि का निर्यात करने का काम भी व्यापारी वर्ग के हाथ था । 1 ग्राम-व्यवस्था के कृषक और कारीगर दोनों इस सामंती व्यवस्था में निर्धन स्थिति में थे । माल को सस्ते दाम पर बेचने की विवशता ने उन्हें विपन्न कर दिया था । अकाल हो, अथवा बहिया किसान को अपनी उपज का एक निश्चित भाग राज कर के रूप में देना ही था । गाँव में जातीय आधार पर वर्ग-भेद भी थे, जिसे सामंती व्यवस्था का पोषण प्राप्त था । गाँव के तथाकथित उच्च वर्ण-पुरोहित, क्षत्रिय, वणिक अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति में थे क्योंकि ग्राम समाज की व्यवस्था के नियामक थे इनकी तुलना में सामान्यजन, जिनमें किसान - कारीगर आते थे, अकिंचन थे । मध्यकालीन ग्रामजीवन का वर्णन करते हुए इतिहासकारों ने प्रमाणों से पुष्ट किया है कि गाँव का मुखिया अच्छी स्थिति में था - मकान, चबूतरा, आँगन, बाड़ा, चहारदीवारी आदि । उसकी तुलना में सामान्यजन का शयन धरती पर था, शरीर के चारों ओर बस एक कपड़ा भर था । मिट्टी के बर्तन उनके पात्र थे और प्रायः मोटा अन्न - ज्वार, बाजरा उनका भोजन, वह भी कई बार एक ही जून (के. एम. अशरफ : लाइफ एंड कंडीशंस ऑफ़ द पीपुल ऑफ हिंदुस्तान, पृ. 161 ) । बाबर ने अपनी आत्मकथा में भी इसका संकेत किया है । इस प्रकार स्वयंसंपूर्ण होकर भी, ग्राम-समाज इस दृष्टि से विभाजित था कि वहाँ वर्ण-वर्ग-भेद थे। एक-दूसरे पर आश्रित रहने के कारण, वे ऊपर से मिले-जुले प्रतीत होते थे, पर सामान्यजन द्वितीय तृतीय श्रेणी नागरिक की स्थिति में थे। स्वयं को उच्च वर्ण कहलाने वाला समाज खेतीबारी के लिए सामान्यजन का उपयोग श्रमिक के रूप में करता था, जिसे मजदूरी के रूप में अन्न दिया जाता था। कहा जा सकता है कि उच्च वर्ग एक प्रकार का परजीवी जैसा था, मध्यकालीन समय-समाज और संस्कृति / 33
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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