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________________ का निषेध संभव नहीं, समय अपना मार्ग तलाशता है और इस प्रकार व्यवस्था में परिवर्तन होते हैं, आंशिक ही सही। जब व्यवस्था पूरी तरह जर्जर और असफल हो जाती है, तब एक प्रकार से वह अपने ही अंतर्विरोधों से टूटती है। इतिहास के ऐसे प्रभावी कारक होते हैं कि प्रक्रिया को रोक पाना संभव नहीं। इस दृष्टि से अंतर्विरोध अथवा इतिहास के दबावों को यदि वस्तुपरक ढंग से देखा जाय तो उनमें दूरी कम हो सकेगी। पूर्व मध्यकाल का प्रतिनिधि सल्तनत काल को पूरी तरह धर्मराज्य/धर्मतंत्र (थियोक्रेसी) के रूप में देखना उचित नहीं होगा। डॉ. रामप्रसाद त्रिपाठी, डॉ. ताराचन्द आदि इस विचार का विरोध करते हैं कि इस्लामी शासन धर्मतंत्र पर आश्रित था। एक बड़े देश में, जहाँ अनेक विविधताएँ हैं, यह संभव भी नहीं। डॉ. त्रिपाठी का विचार है कि फ़ीरोज़ की उदार नीति और अकबर द्वारा 1564 में जज़िया का हटाया जाना प्रमाणित करता है कि दो प्रमुख जातियों की दूरी कम हो रही थी (सम ऐस्पेक्ट्स ऑफ़ मुग़ल एडमिनिस्ट्रेशन, पृ. 315)। इस्लामी राज्य में शासक खुदा का प्रतिनिधि है, और धार्मिक पुरोहित न्यायविद उल्मा के रूप में कुरान शरीफ़, शरीयत की व्याख्या करते थे। पर इतिहास प्रमाण है कि दिल्ली के सुल्तान स्वयं को बग़दाद के ख़लीफ़ा से मुक्त करने का प्रयत्न करने लगे (असितकुमार सेन : पीपुल एंड पालिटिक्स इन अर्ली मेडिवल इंडिया, पृ. 2)। सुल्तान स्वयं खुतबा पढ़ने लगा और एक प्रकार से सर्वोच्च भूमिका निभाने लगा। हर निर्णय के लिए ख़लीफ़ा का अनुमोदन न संभव था, न आवश्यक। इसके कुछ परिणाम सामने आए जिनमें एक यह कि इस्लामी शासक का अपना व्यक्तित्व निर्मित हुआ, वह उस देश से जुड़ा, जहाँ वह राज्य कर रहा था। इसे सामंती समाज का विकास इस रूप में कहना होगा कि शासक केन्द्रीय सत्ता के रूप में सर्वोपरि सामंत था। इतिहासकारों ने फ़ीरोज़ तुग़लक जैसे उदार सुल्तान का विशेष उल्लेख करते हुए लिखा है कि इस्लाम के भारतीयकरण की प्रक्रिया में उसका भी योगदान है जिसे सूफी संतों ने रचना के माध्यम से शीर्ष पर पहुँचाया (के. एस. लाल : ट्विलाइट ऑफ़ द सल्तनत, पृ. 244)। मुगलकाल एक प्रकार से केंद्रीय सामंतवाद का प्रतिनिधि भी है जिसमें बादशाह ने बड़े साम्राज्य के लिए सूबों की व्यवस्था की और वहाँ विश्वस्त प्रांतपतियों अथवा सूबेदारों की नियुक्ति की। ये प्रायः राजकुल से संबद्ध अथवा बादशाह के समीपी विश्वसनीय व्यक्ति होते थे। सूबेदार, अमीर-उमरा, जागीरदार, मनसबदार सब केंद्रीय सामंती व्यवस्था को पुष्ट करते थे। जब यह केंद्रीय शक्ति दुर्बल हुई तो सामंत स्वयं शासक बनने का प्रयत्न करने लगे, जिसे सतीशचन्द्र ने सामंती अंतर्विरोध के रूप में देखा है (पार्टीज़ एंड पॉलिटिक्स एट द मुग़ल कोर्ट : भूमिका)। ___ मध्यकालीन सामंती समाज का एक रूप नहीं है। विद्वानों ने स्वीकार किया है कि सल्तनत काल में मुख्यतया नगर-सभ्यता थी और ग्राम-समाज की ओर अधिक ध्यान नहीं दिया गया, जबकि जनसंख्या की दृष्टि से वही बहुमत है। अरसे तक 32 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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