SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 223
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हिंदुआई, मुसलमान के पीर-औलिया मुर्गी-मुर्गा खाई। उच्चतर मूल्य-संसार रचाते हुए वे अधिक संयत हैं, पर भाषा योगपरक शब्दावली को छोड़कर, सामान्यतया सहज है, लोकगीतों का स्मरण कराती : मोरी चुनरी में परि गयो दाग पिया अथवा बहुरि नहिं आवना या देस। ठेठ देशज भाषा, जिसे कभी अनगढ़ तक कहा गया, समाज के पिछड़े वर्गों से सहज तादात्म्य स्थापित करती है। कबीर पंजाब से छत्तीसगढ़ तक फैले हुए हैं और उनकी भाषा के कई तेवर हैं। कबीर की तुलना में जायसी अनाक्रोशी कवि हैं, अपेक्षाकृत शांत-संयत, प्रेमभाव को अभिव्यक्ति देते हुए। वे भी अवधी के ठेठ देशज रूप को अपनाते हैं जो उन्होंने लोकजीवन से प्राप्त की, पर उसमें विविध भावों के प्रकाशन के लिए अवसर कम है। उसे निरायास भाषा भी कहा जा सकता है, इस अर्थ में कि उसमें तत्सम शब्दावली सीमित है पर लोकसंवेदना के जो स्थल उनकी चेतना के समीपी हैं, वहाँ वे मार्मिक हैं, जैसे मानसरोदक, नागमती वियोग आदि खंड में। कबीर-जायसी में योग की शब्दावली काव्य-भाषा में सहज नहीं हो पाई है। काव्यभाषा, शिल्प की संक्षिप्त चर्चा इसलिए क्योंकि जिस समाजदर्शन को भक्तिकाव्य प्रक्षेपित करना चाहता है और जिस लोकजीवन पर वह आधारित है, उसकी विश्वसनीयता का आधार जीवन-संपक्ति से प्राप्त भाषा ही है। कबीर में यदि भाषा की अनगढ़ मौलिकता है, इस बिंदु पर कि शब्द कहीं से भी पाए जा सकते हैं, प्रश्न उनके संयोजन और अर्थ-निष्पत्ति का है। जायसी की ठेठ पूरबी अवधी की सरसता मार्मिक प्रसंगों में देखी जा सकती है : कुहुकि कुहुकि जस कोइल रोई। सूर में ब्रजभाषा का सर्वोत्तम सरक्षित है और गीतात्मकता के लिए जिस माधुर्य गुण तथा लय की अपेक्षा होती है, उसमें वे अप्रतिम हैं। सूरदास की रचनाशीलता का आधार वह पदशैली है, जिसे लोककंठ में स्थान प्राप्त था, लोकगीतों के रूप में। इनके अनाम रचनाकारों ने सूर को इसलिए भी प्रभावित किया क्योंकि वे उनके संवेदन के समीपी थे और सूरसागर के महत्त्वपूर्ण प्रसंग-बाल-वर्णन, माखनलीला, गो-चारण से लेकर भ्रमरगीत तक सूर की चेतना के समीपी हैं। इनकी अभिव्यक्ति में वे जिस संलग्नता तथा रागात्मकता के साथ, स्वयं को नियोजित करते हैं, उसके लिए लोकगीतों की मधुरा भाषा प्रासंगिक है। कीर्तन-गायन से जुड़कर सूर के पद जनता की स्मृति का अंश बनते हैं और जिस भावलोक का निर्माण होता है, उसे गीतकाव्य के संदर्भ में स्पृहणीय कहा जा सकता है। निश्छल, निर्मल संवेदन जिस तन्मयता से व्यक्त हुए हैं, उसे गीतसृष्टि का एक प्रतिमान कहना अधिक उचित होगा। इसमें लोकजीवन से प्राप्त कवि का वह बिम्ब-संसार भी, जिससे दृश्यांकन होता है : देखियत कालिंदी अति कारी; अति मलीन वृषभानुकुमारी; निसिदिन बरसत नैन हमारे आदि। पदों की लयात्मकता उन्हें जो संगीतमयता देती है, उससे वे लोकगीतों की परंपरा का अंग बने और राग-रागिनियों में बँधकर शास्त्रीय गायन से भी संबद्ध हो गए। 228 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy