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________________ काम क्रोध दोउ बैल बली मिलि, रज-तामस सब कीन्हौ अति कुबुद्ध मन हाँकनहारे, माया जूआ दीन्ही इंद्रिय मूल-किसान, महातृन-अग्रज-बीज बई जन्म-जन्म की विषय-वासना, उपजत लता नई पंच प्रजा अति प्रबल बली मिलि, मन-बिधान जौ कीनौ अधिकारी जम लेखा माँगै, ता” हौ आधीनौ। अहंकार पटवारी कपटी, झूठी लिखत बही लागै धरम बतावै अधरम, बाकी सबै रही भक्तिकाव्य के संदर्भ में जिस लोकजीवन की अभिव्यक्ति कई प्रकार से की जाती है, कई नाम देकर, उसका कला-शिल्प पक्ष विचारणीय है, पर वह स्वतंत्र विवेचन का विषय है। उल्लेखनीय यह कि भक्तिकाव्य ने शास्त्रीयता-पंडिताई के स्थान पर ज्ञान-संवेदन-पथ का चयन किया, जिसे व्यापक समुदाय की स्वीकृति मिली। पर यह प्रयत्न अपूर्ण ही रह जाता, यदि कवियों ने देवभाषा के स्थान पर 'देसी भाषा' का चयन न किया होता। मराठी में अभंग रचे गए, असम में शंकरदेव ने, बंगाल में चैतन्य-चंडीदास ने अपनी भाषा को अपनाया, जिससे पूर्वांचल प्रभावित हुआ। हिंदी में ब्रज-अवधी में भक्तिकाव्य की प्रमुख सक्रियता है पर मैथिली में विद्यापति, राजस्थानी में मीराबाई भी हैं। भक्तिकाव्य ने अपना मुहावरा लोकजीवन से प्राप्त किया, इसलिए जो आशय समाजदर्शन के रूप में वह लोगों तक पहुँचाना चाहता था, उसमें सफलता मिली। यहाँ न अभिव्यक्ति का संकट है, न प्रेषणीयता का, विशेषतया उस अर्थ में, जिस रूप में आज प्रयुक्त किया जाता है। आभिजात्य को तोड़ती, सहज भाषा को पाने का प्रयत्न तो यहाँ है, पर उसे सरल-सपाट नहीं कहा जा सकता। कविता सपाटे में संभव भी नहीं है, वह रुककर सोचने को बाध्य भी करती है, क्योंकि भावावेश के सहारे नहीं चलती। जीवन-जगत को जिस रूप में देखा-समझा गया है, उसी रूप में पाठक तक उसे पहुँचा सकने का कार्य स्वयं में चुनौती-भरा है, जोखिम का भी, जिसके लिए मुक्तिबोध ने गढ़-मठ तोड़ने की बात तक की है। इस दिशा में सबसे अधिक खतरा उठाया कबीर ने, जिसके पास अनुभव की पूंजी थी और व्यंग्य के मूल में भी एक सदाशयी मानवीय दृष्टि, जिसके अभाव में रचनाएँ चीत्कार-फूत्कार बनकर रह जाती हैं। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जब कबीर को 'वाणी का डिक्टेटर' कहते हैं तब उनका आशय यही है कि वे अपना मंतव्य समाज तक पहुँचाना चाहते हैं और इसके लिए पूरा मुहावरा भी वहीं से प्राप्त कर लेते हैं, परम देशज तद्भव रूप में। बोलचाल की भंगिमा उनके यहाँ सहजता से प्रवेश कर गई है। जब वे व्यंग्य करते हैं तो भाषा प्रहारात्मक होती है, लोकोक्तियों का सहारा लेती, जैसे एक ही पद में दोनों जातियों के पाखंड पर आक्रमण : बेस्या के पायन-तर सोवै यह देखो भक्तिकाव्य का समाजदर्शन / 227
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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