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________________ आकर्षण केवल रूप के प्रति नहीं है, उसमें गुण भी सम्मिलित हैं, जिसमें मुरली-वादन, कतिपय चमत्कारी लीलाएँ, विशेष रूप से गोवर्धन-धारण आदि हैं । तुलसी की भक्ति चेतना को भी किसी ऐसे आध्यात्मिक लोक में ले जाने की आवश्यकता नहीं है, जहाँ उसका मानवीय लोकपक्ष ही धूमिल पड़ जाय, जो पूरी कथा के केंद्र में है । आखिर संत, सत्संगति पर महाकवि का इतना आग्रह क्यों, कि वे कई रूपों में उनका स्मरण करते हैं। रामचरितमानस का आरंभ ही उन्हीं से होता है : साधु चरित सुभ चरित कपासू, निरस बिसद गुनमय फल जासू / जो सहि दुख पर छिद्र दुरावा, बंदनीय जेहिं जग जस पावा और उत्तरकाण्ड में भी संत चर्चा है । तुलसी ने संसार की विविधता को देखा-समझा, पर संत को अपनी मूल्य - अभीप्सा के प्रतिनिधि रूप में चुना। यह अकारण नहीं कि सभी भक्तकवि गुरु, संत, सत्संगति को ज्ञान का प्रवेश-द्वार मानते हैं । यह गुरु परिभाषित है- आलोकदाता, अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला है, विद्याव्यापारी नहीं । कबीर में गुरु सर्वोपरि स्थान पर हैं, गोविंद से भी ऊपर और जायसी की कथा का सूत्रधार हीरामन सुग्गा है। सूर में गुरु नेपथ्य में चले गए हैं। और जो ज्ञान-गर्व वाले उद्धव आए, वे अधूरे हैं। वहाँ कृष्ण ही गुरु, सखा हैं, सब कुछ वही हैं : ब्रजजन सकल स्याम ब्रतधारी । तुलसी ने मानस के आरंभ में ही स्वीकार किया कि गुरु के स्मरण मात्र से दिव्यदृष्टि प्राप्त होती है, विवेक-नेत्र निर्मल होते हैं। मीरा ने रैदास को गुरु रूप स्वीकारा, संतों का साथ किया । भक्तिकाव्य जटाजूटधारी गुरुडम से अपनी रक्षा करता है और यह स्थापना भी कि आरंभिक कर्तव्य पालन के बाद गुरु को दृश्य से हट जाना चाहिए ताकि सब अपने-अपने मार्ग का संधान कर सकें। संस्कृति का इतिहास इसी प्रकार अग्रसर होता है, प्रतिवाद से नया मार्ग बनाते हुए, नयी संस्कृति रचते हुए । जिसे भक्तिकाव्य की आध्यात्मिकता कहा जाता है, वह उच्चतर मानवीय संकल्पना की अवधारणा है, जहाँ मनुष्य उच्चतम धरातल प्राप्त कर सकता है। भक्तिकाव्य को धार्मिक आंदोलन कहकर संबोधित नहीं किया जा सकता और इस दृष्टि से विश्व के धार्मिक प्रयत्नों से उसकी प्रकृति भिन्न है, गंतव्य भी पृथक् . है । धार्मिक सुधार के जो प्रयत्न होते रहे हैं, उनमें पुनरुत्थानवादी भाव यह कि कर्मकांड - पुरोहितवाद के साथ धर्म-संप्रदाय बने रहें, आंशिक परिवर्तन के साथ । पर यह समस्या का समाधान नहीं है, इसलिए इसकी उपादेयता भी संदेहास्पद । भक्तिकाव्य के मध्यकालीन राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य को देखें, तो पंडित वर्ग में बौद्धिक सक्रियता तो थोड़ी-बहुत है, पर समाज में परिवर्तन की कोई संगठित इच्छा-शक्ति दिखाई नहीं देती, छुट-पुट स्वर भर सुनाई देते हैं। ऐसे में भक्तिकाव्य को एक 'सांस्कृतिक हस्तक्षेप' के रूप में अधिक देखा जाना चाहिए जिसका एक प्रतिरोधी स्वर है। सचाई तो यह है कि सार्थक रचनाएँ अपने ढंग से प्रतिपक्ष की भूमिका का निर्वाह करती हैं, कहीं स्वर बहुत मुखर होता है, कहीं संयत - शालीन । भक्तिकाव्य 224 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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