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________________ अन्यथा 1 प्राप्त कर सकती है, तो फिर किसी रहस्यवादी अतिरिक्त आरोपण की बाध्यता ही कहाँ रह जाती है । यह तो उसी कर्मकाण्डी पद्धति की ओर प्रत्यावर्तन है, जिसके विकल्प रूप में भक्तिकाव्य मूल्य-संसार को प्रतिपादित करता है । काव्य के संदर्भ में अध्यात्म और रहस्यवाद शब्दों के प्रयोग में किंचित् सावधानी की अपेक्षा है, संवेदन- जगत् का वास्तविक आशय ही संकट में पड़ जाएगा । भाव - उन्नयन ही ऐसी अर्थदीप्ति देता है कि अन्य संकेत और व्यंजनाएँ भी प्राप्त हों, तो भी उन्हें सही संदर्भ में देखा जाना चाहिए। कबीर - जायसी के रहस्यवाद की चर्चा कभी होती थी, इसलिए उस पर विचार जरूरी है। दोनों को निर्गुणमार्गी कवि कहा गया, जहाँ साकार देवत्व अनुपस्थित, पर यह भी सच है कि वे ज्ञान - प्रेम मार्ग से होकर एक ही लक्ष्य पर पहुँचना चाहते हैं - उच्चतर मूल्य-संसार, जहाँ विकार कम होंगे तथा भाई-चारा, औदार्य, करुणा, सहानुभूति, सौमनस्य अधिक । अलाउद्दीन ने छल-बल से पद्म को पाना चाहा, पर परिणाम क्या हुआ ? जौहर भइ सब इस्तिरी, पुरुष भए संग्राम | जायसी की निष्कर्षात्मक टिप्पणी विचारणीय है कि तृष्णा कष्ट देती है : जौ लहि ऊपर छार न परै, तौ लहि यह तिस्ना नहिं मरे । राघवचेतन, देवपाल की भी यही दुर्गति है जो देहवाद में उलझे हैं । पद्मावत के अंत में जायसी पद्मावती के मार्मिक प्रसंग के माध्यम से प्रेम की प्रतिष्ठा करते हैं : सारस पंखि न जियै निनारे, हौं तुम्ह बिनु का जिऔं पियारे । कबीर - जायसी में हठयोग शब्दावली आ गई है, इससे भी भ्रांति उत्पन्न होती है और इसका बचाव करना भी कोई अनिवार्यता नहीं है । पर वास्तविकता यह है कि ऐसे अगोचर रहस्य- लोक का निर्माण लोकसंपृक्ति के इन संवेदन-संपन्न कवियों की अभीप्सा ही नहीं है, जहाँ मनुष्य पृष्ठभूमि में चला जाय और पुरोहितवाद का कर्मकांडी व्यवसाय सक्रिय हो । कवियों का मूल आशय उच्चतर मूल्य-संसार का निष्पादन है और जिसे जीव - ब्रह्म अथवा आत्मा-परमात्मा-संबंध के रूप में विवेचित किया जाता है। उसकी भी ध्वनि यही है कि जीवन-संघर्ष के बीच से मनुष्य मनुष्यता का उच्चतम धरातल कैसे प्राप्त करे। उदात्त मानवीय प्रेम से ही यह संभव है ! पेम छाँड़ि नहिं लोन किछु ( जायसी) । अध्यात्म शब्द भी कई बार यह सुविधा देता है कि उसे रहस्यवाद से संबद्ध कर देखा जाय । पर जब काव्य के संदर्भ में इसका प्रयोग होता है तो उसकी मानवीय पंथ निरपेक्ष स्थिति अधिक उपयोगी प्रतीत होती है । भक्तिकाव्य की विश्वसनीयता का प्रमुख कारण उसकी यही मानवीय दृष्टि है, जिसका विवेचन हो चुका है। कृष्ण "मैं कुछ चमत्कार हैं पर उनका रंगारंग लीला - संसार है, पूरी तरह मानवीय, फिर भी उन्हें ऐसी आध्यात्मिकता से मंडित किया जाता है कि वे उस देवत्व की ओर लौट जाय जहाँ से सूरदास आदि उन्हें पृथ्वी पर अवतरित करके लाए थे, मनुष्य की प्रेरणा के लिए । गोपिकाओं का प्रेम भाव अपनी रागात्मकता में ही सराहनीय है, उसे किसी अतिरिक्त आध्यात्मिक आवरण की अपेक्षा नहीं । पर यहाँ यह भी उल्लेखनीय कि भक्तिकाव्य का समाजदर्शन / 223
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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