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वैचारिक- दार्शनिक आधार है जो समय से जूझने और विकल्प की खोज में उसकी सहायता करता है । पर इसे टुकड़ों में बाँटकर देखना, खंड-खंड विवेचन और बहुत वर्गीकृत करने का प्रयत्न उचित नहीं होगा, यद्यपि कवियों की अपनी जीवन-दृष्टि है। पर वे विचार को संवेदन का अविभाज्य अंग बनाते हैं और बाह्यारोपण की मसीहाई मुद्रा से बचने का प्रयत्न करते हैं । यहाँ लोक तथा शास्त्र का द्वैत मिटता दिखाई देता है और मध्यकालीन परिवेश को ध्यान में रखते हुए यह उपलब्धि साधारण नहीं
| भक्तिकाव्य जानता है कि पोथियों से बाहर निकलकर कविता जब लोकजीवन से गहरे रूप में संपृक्त होती है, तभी वह सार्थकता पाती है, शर्त यह है कि किसी सरलीकरण का सहारा न लिया जाय ।
भक्तिकाव्य का वैचारिक आधार, इस दृष्टि से विचारणीय है कि विकल्प की खोज का कार्य उसके अभाव में संभव नहीं है। कोरी भावुकता बिला जाती है, इसलिए उसे गहरे संवेदन से संबद्ध करना पड़ता है, जिसमें रचनाकार की 'जीवन - दृष्टि' की भूमिका होती है । प्रस्थान, गंतव्य और निर्वाह तीनों के संयोजन के आधार पर रचना की सही पहचान होती है । कविता के संदर्भ में 'करुणा' का उल्लेख प्रायः किया जाता है, पर भक्तिकाव्य में वह लोकजीवन से संबद्ध होकर व्यापकत्व प्राप्त करती है । यहाँ तक कि ईश्वर - प्रकृति - मनुष्य तीनों इस प्रक्रिया में सम्मिलित हैं । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहा है कि सामाजिक जीवन की स्थिति और पुष्टि के लिए करुणा का प्रसार आवश्यक है। इसे वे मनुष्य की प्रकृति में शील और सात्त्विकता का आदि संस्थापक मनोविकार मानते हैं (चिंतामणि, पृ. 46 ) । भक्तिकाव्य के प्रसंग में इस करुणा-भाव की चर्चा इसलिए आवश्यक क्योंकि प्रायः इस ओर ध्यान नहीं दिया जाता, जबकि वह अंतर्धारा की तरह पूरी रचनाशीलता में व्याप्त है, जिससे लोकधर्मी मानववाद का वृत्त पूरा होता है । जिसे भक्तिकाव्य का असंतोष कहा जाता है, उसके मूल में कहीं न कहीं करुणा का भाव विद्यमान है, अन्यथा वक्तव्यों और उपदेशों की पंक्तियाँ तो सरलता से लिखी जा सकती हैं। दृष्टि चारों ओर जाती है और कवि देखता है कि कहीं कुछ गड़बड़ है, इसे बदलना चाहिए । रचना में यह चिंता करुणा की मानवीय संलग्नता से संबद्ध होकर संवेदन - संपन्न बनती है, जिसका प्रसार जितना व्यापक और गहन होगा, कृति उतनी ही मार्मिक होगी, प्रभविष्णु । नागमती का विरह वर्णन वैयक्तिक पीड़ा से बाहर निकलकर प्रकृति से जुड़ जाता है और पूरे प्रसंग को जायसी करुणा से भर देते हैं : गिरि, समुद्र, ससि, मेघ, रबि सहि न सकहिं वह आगि / / मुहमद सती सराहिए जरै जो अस पिउ लागि । पद्मावत का अंत भी करुण है : छार उठाइ लीन्ह एक मूठी, दीन्ह उड़ाइ पिरथिमी झूठी । विजयदेवनारायण साही पद्मावत के उपसंहार के माध्यम से प्रेम की पीर, रक्त की लेई और नैन-जल से भीगी हुई गाढ़ी प्रीति का उल्लेख करते हैं । तुलनात्मक दृष्टि डालते हुए उन्हें वे करुणा के कवि रूप में रेखांकित करते हैं और पद्मावत को एक विराट 'ट्रैजिडी' के रूप
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218 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन