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समग्र रचना-संसार प्रेरणा पाता है - चित्र, संगीत, मूर्ति, स्थापत्य । रामकाव्य की मर्यादाओं का उल्लेख प्रायः किया जाता है, पर सचाई यह है कि तुलसी ने जो मूल्य-संसार तलाशा, उसकी कतिपय परंपरित आदर्शवादी रेखाओं को छोड़ दें, तो वे आज भी हमारे सबसे जनप्रिय कवियों में हैं । जो अनुदार टिप्पणियाँ की जाती हैं, उसके विषय में डॉ. रामविलास शर्मा को उद्धृत करना प्रासंगिक होगा : 'तुलसी की भक्ति समाज के लिए अफ़ीम नहीं थी । वह जन-जागरण का एक साधन थी । भक्त तुलसीदास मूलतः मानववादी हैं और उनके साहित्य की महत्ता वास्तविक सामाजिक संबंधों का वर्णन करने में है, जनसाधारण की वेदना और उससे मुक्ति की कामना का, जनता के नैतिक गुणों का चित्रण करने में है, न कि सेवक-भाव से कृपा की भिक्षा माँगने में' (परंपरा का मूल्यांकन, पृ. 88 ) । विनयपत्रिका का दैन्य, कबीर का विद्रोह, सूर के विनय - पद तथा गोपी-भाव, जायसी की प्रेम कल्पना, मीरा का समर्पण को इसी पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए - अपने समय का सांस्कृतिक विकल्प खोजने का संकल्प । भक्तिकाव्य में भक्ति एक आचरित मूल्य के रूप में प्रतिष्ठित है : भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा, उभय हरहिं भव संभव खेदा ।
भक्तिकाव्य में भक्ति का जो स्वरूप विकसित होता दिखाई देता है, उसे मध्यकाल का लोकधर्म अथवा मानवधर्म कहना उचित होगा । सामंती समाज को देखते हुए इसकी सीमाएँ हैं, कई बार इन्हें अंतर्विरोध के रूप में भी देखा जा सकता है। पर एक सैद्धांतिक प्रश्न कि अंतर्विरोध तो उनमें भी हैं जो अंतर्विरोधों के अध्ययन में अपनी समस्त शक्ति लगाते हैं । कई बार शब्दों का रूढ़ प्रयोग, कुतर्क जैसा प्रतीत होता है और रचना के संदर्भ में ऐसा करते हुए समझदारी से काम लेना चाहिए । देवता और मनुष्य की तरह भक्तिकाव्य के संदर्भ में शास्त्र और लोक का प्रश्न भी उठाया गया है। नामवरसिंह ने आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का विवेचन करते हुए लिखा है : 'मध्ययुग के भारतीय इतिहास का मुख्य अंतर्विरोध शास्त्र और लोक के बीच का द्वंद्व है, न कि इस्लाम और हिंदू धर्म का संघर्ष । इस स्थापना को अग्रसर करते हुए वे लिखते हैं : ‘शासकवर्ग की विचारधारा के प्रभाव से बहुत कुछ मुक्त रहने के कारण लोकधर्म शास्त्र से हीन प्रतीत होते हुए भी उसका विकल्प बनकर उपस्थित होता है और यही उसकी शक्ति है । लोकधर्म का प्राण उसका विद्रोह है'
( दूसरी परंपरा की खोज, पृ. 80 ) । भक्तिकाव्य शास्त्र की सीमाओं से परिचित है, इसका संकेत किया जा चुका है, इसलिए वह गहरे संवेदन के स्तर पर लोकजीवन को स्वीकारता है और उसे लोकभाषा में अभिव्यक्ति देता है । पर यहाँ यह तथ्य उल्लेखनीय है कि संत, भक्तकवि इस विषय में सजग हैं कि कोरा भाववाद हमें कहीं नहीं ले जाता, कई बार दिग्भ्रमित भी कर सकता है। जैसे वे इस बात को भी जानते हैं कि कोरा तर्क भाष्य का पंडिताऊ प्रयत्न हो सकता है, पर सामान्यजन का इस बौद्धिक शीर्षासन से अधिक संबंध नहीं होता । भक्तिकाव्य का प्रशस्त
भक्तिकाव्य का समाजदर्शन / 217