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________________ भक्ति के द्वार सभी जातियों के लिए उन्मुक्त किए। उनकी प्रपत्ति दास्य भाव को अग्रसर करती है जिसे वे भक्ति का सार मानते हैं। रामानंद मध्यकाल में उदार भक्तिचिंतन की परिकल्पना करते हैं और उन्हें स्वतंत्रचेता आचार्य कहकर संबोधित किया गया है। उनकी शिष्य परंपरा में निम्नतम वर्ग है-जुलाहा, चर्मकार, नापित, स्त्री सभी। उनकी दृष्टि सुधारवादी है और वे अपने समय के सामाजिक चेतना-संपन्न विचारक हैं : 'रामानंद ने भक्ति की धारा को नई सर्जनात्मक दिशा देने में ऐतिहासिक भूमिका का निर्वाह किया। निश्चित ही वे रामानुजाचार्य-राघवानंद की परंपरा से जुड़े हैं, पर अपनी सामाजिक भूमिका के प्रति वे मध्यकाल के सबसे सचेत संत हैं' (प्रेमशंकर : भक्तिकाव्य की भूमिका, पृ. 125)। तुलसी की रचनाशीलता के केंद्र-पुरुष राम हैं जो ब्रह्म रूप हैं, पर विष्णु अवतार-एक उनका रूप है, दूसरा उनका अवतरण । राम विश्वरूप हैं और उनमें सब कुछ समाया हुआ है : कोटि-कोटि ब्रह्मांड। इसलिए यह सामाजिक शंका कि वे सगुण हैं अथवा निर्गुण । पर तुलसी इनमें टकराहट नहीं देखते और बालकांड के आरंभिक अंश में ही कहते हैं कि ये दोनों ब्रह्म के स्वरूप हैं : अगुन-सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा, अकथ अगाध अनादि अनूपा । पर उनके लिए राम नाम इन दोनों से बढ़कर है : मोरें मत बड़ नाम दुहू तें, किए जेहिं जुग निज बस निज बूतें। इस प्रकरण को आगे बढ़ाते हुए वे कहते हैं कि निर्गुण-सगुण ब्रह्म का ज्ञान अग्नि के समान है-अप्रकट और प्रत्यक्ष । तुलसी सगुण अवतारी राम को केंद्र में रखकर संपूर्ण लीला-कर्म का विन्यास करते हैं, पर वे कहते हैं : सगुनहिं-निगुनहिं नहिं कछु भेदा, गावहिं मुनि पुरान बुधि वेदा। जो निर्गुण अरूप, अलख, अजन्मा है, वह भक्त के प्रेमवश सगुण हो जाता है। जैसे जल और हिम उपल में कोई भेद नहीं होता, वही स्थिति इन रूपों की है। 'कामायनी' में जलप्लावन के लिए कहा गया : एक तत्त्व की ही प्रधानता, कहो उसे जड़ या चेतन । तुलसी राम को 'सच्चिदानन्द' रूप देखते हैं, उन्हें सर्वगुणसंपन्न विभूषित करते हैं और शंकर-पार्वती की कथा इस संशय पर आश्रित है जिसमें पार्वती सीता का रूप धारण कर राम के समक्ष प्रस्तुत होती हैं। आगे चलकर शंकर टिप्पणी करते हैं कि विवेक न होने से कठिनाई होती है : जिन्हके अगुन न सगुन बिबेका, जल्पहिं कल्पित बचन अनेका। बालकांड के आरंभ में ही तुलसी ने अपने समय के इस जटिल दार्शनिक प्रश्न को सुलझाने का प्रयास किया है और उनके राम सगुण-निर्गुण से संयोजित हैं, पर दोनों का अतिक्रमण करते, श्रेष्ठतर । राम के लिए प्रयुक्त अनेक विरुद उनकी उच्चतम मानवीयता प्रमाणित करते हैं। तुलसी के भक्तिचिंतन का व्यापक स्वरूप है और उसमें कई विरोधी प्रतीत होने वाली अवधारणाएँ विलयित होती हैं। इसका यह अर्थ नहीं कि वे किसी भी प्रकार के समन्वयवाद के लिए तत्पर थे, अथवा किसी मध्यमार्ग की तलाश में थे। तुलसी का संवेदनशील कवि रूप, उनकी सजग सामाजिक चेतना, दर्शन-विचार को 200 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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