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________________ यहाँ मौजूद हैं, पर तुलसी की उदात्त विवेकी भक्ति इसे पार करती है । पश्चात्ताप तो है, पर सब कुछ को पारकर भक्ति के उच्चतम मूल्यसंसार को पाने का संकल्प भी ( पद 115 ) : तुलसिदास हरि-गुरु- करुना बिनु बिमल बिबेक न होई बिनु बिबेक संसार घोर निधि पार न पावै कोई । भक्ति का गंतव्य भक्ति है - निष्काम भक्ति, फिर कोई अन्य कामना शेष नहीं रह जाती । तुलसी कहते हैं कि मानुष-तन पाने से क्या लाभ ? सुर-दुर्लभ तन मिला और मद- अभिमान में व्यर्थ गँवा दिया गया । भेद-बुद्धि नष्ट हो, शुद्ध मन से राम में प्रेम हो, तभी जीवन की सार्थकता है (पद 201 ) । तुलसी भक्ति को अपने समय के वैकल्पिक मूल्य-संसार के रूप में प्रतिपादित करना चाहते हैं, इसलिए वे शास्त्रपांडित्य को अतिक्रांत करते हैं । जानते हैं कि सामान्यजन को इससे कोई लाभ नहीं होगा और वाद-विवाद, खंडन-मंडन का वितंडावाद चलता रहेगा । 'विनयपत्रिका' के ही प्रसिद्ध पद (केशव कहि न जाइ का कहिये) में वे दार्शनिक व्याख्या और भाष्य को अपूर्ण मानते हैं, कहते हैं : कोउ कह सत्य, झूठ कह कोऊ, जुगल प्रबल करि मानै, तुलसिदास परिहरै तीन भ्रम सो आपन पहिचानै । भक्ति के प्रति तुलसी की यह उदार दृष्टि उनकी सजग सामाजिक चेतना की उपज है, इसे ध्यान में रखना होगा । कवि का भक्तिचिंतन उनके समाजदर्शन का ही एक अंग है जिसका उपयोग वे व्यापक हित में करना चाहते हैं और इसके लिए पात्रों की चरितार्थता में गहरी रुचि लेते हैं । विनयपत्रिका के लंबे पद (139) में कलिकाल का वर्णन सप्रयोजन है, जिसमें तुलसी टूटते-बिखरते मूल्यों पर गहरी चिंता व्यक्त करते हैं : कामधेनु धरनी कलि-गोमर- बिबस बिकल जामति न बई है। भक्ति को वे वैकल्पिक मूल्य-रूप में प्रतिष्ठित करते हैं और जिस राम को उन्होंने उपास्य कहा, जहाँ संपूर्ण भक्ति समर्पित होती है, उसे 'गुणसमुच्चय' बनाया, उसमें शुभ कर्म का सौंदर्य बसाया ताकि उनकी विश्वसनीयता प्रमाणित हो । वे राम के प्रति जिस विरुदावली का प्रयोग करते हैं, वह उल्लेखनीय है : ऐसे को उदार जग माँहीं, एकै दानि - सिरोमनि साँचों; कृपासिंधु जन दीन दुवारे आदि। तुलसी में भक्ति केवल दर्शन नहीं है, वह संपूर्ण जीवन-दृष्टि से संबद्ध है जिसे महाकवि ने वैकल्पिक मूल्य-संसार के रूप में रचा है और जो आचरण से ही प्रमाणित होती है । चातक के माध्यम से भी वे भक्ति का प्रतिपादन करते हैं जो सर्वोपरि भक्तों में है : एक राम घनस्याम हित, चातक तुलसीदास । भक्ति के संबंध में द्वैत-अद्वैत, सगुण-निर्गुण के प्रश्न प्रायः उठाए जाते हैं और कहा जाता है कि तुलसी रामानुज - रामानंद की परंपरा में दार्शनिक स्तर पर 'विशिष्टाद्वैतवाद' को स्वीकारते हैं । यहाँ इस विवाद में जाने का न अवसर है न औचित्य पर रचना में दर्शन - विचार के प्रवेश की प्रक्रिया संश्लिष्ट होती है, जिसकी चर्चा हो चुकी है। रामानुज ने प्रपत्ति अथवा शरणागति दर्शन को प्रधानता दी तथा तुलसीदास : सुरसरि सम सब कहँ हित होई / 199
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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