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________________ आश्वस्त हैं, उसे सीधा मार्ग कहती हैं : काहे कौं रोकत मारग सूधौ (4508)। भ्रमरगीत भागवत की परंपरा के क्रम में है, पर इसे ग्राम-नगर के वैचारिक द्वंद्व के रूप में भी देखा जाना चाहिए, जिसे गोपिकाओं की उक्तियों से समझा जा सकता है। इस . दृष्टि से सूर का भ्रमरगीत स्वतंत्र विवेचन की माँग करता है जहाँ भ्रमर की लंपटता, सामंती समाज, नगर-देहवाद पर टिप्पणियाँ भी हैं। गोपिकाओं का व्यंग्य है : मधुबन सब कृतज्ञ धरमीले, अति उदार परहित डोलत हैं, बोलत बचन सुरीले (4212), मुख औरै अंतरगति औरै (4209), वह मथुरा काजर की ओबरी है, जिससे यमुना भी काली हो गई (4380) : बिलगि जनि मानौ ऊधौ कारे वह मथुरा काजर की ओबरी, जे आ3 ते कारे तुम कारे सुफलक सुत कारे, कारे कुटिल सँवारे कमलनैन की कौन चलावै, सबहिनि मैं मनियारे मानौ नील माट तें काढ़े, जमुना आइ पखारे तातें स्याम भई कालिंदी, सूर स्याम गुन न्यारे। लोक रचना को समृद्धि देता है और कवि अपनी अभीप्सा के अनुसार इसका उपयोग करते हैं। सूर में लोकजीवन प्रायः ब्रजमण्डल को लेकर प्रक्षेपित हुआ है, यद्यपि उसकी व्यापक अर्थध्वनियाँ भी हैं, इस दृष्टि से कि जहाँ कहीं जीवन की खुली कृषि-चरागाही सभ्यता होगी, वहाँ भौगौलिक परिवर्तनों के साथ इस प्रकार के कुछ दृश्य देखे जा सकते हैं। कठिनाई यह कि कई बार लोक को उस यथार्थ तक सीमित करने की भूल की गई, जिसे जीवन का दैन्य कहा जाता है। सूर का संसार रागात्मकता तथा सौंदर्य का है और उसी परिप्रेक्ष्य में वे लोकजीवन को अपने काव्य में उभारते हैं। उसमें सर्वाधिक अंश ब्रजमंडल की मोहक प्रकृति का है, जिसका साक्ष्य यमुना नदी है। फिर ब्रज के असंख्य संस्कारों तथा किसान-चरवाहा जीवन को प्रकृति की इसी मनोरम पीठिका पर दर्शाया गया है। इसमें कहीं-कहीं परम उन्मुक्तता भी आ गई। पर इसे एक स्वच्छंद प्रवृत्ति की चरागाही संस्कृति के संदर्भ में देखना अधिक प्रासंगिक होगा। जिसे 'पेस्टोरल' कविता कहा जाता है, वह 'शेफ़र्ड' (चरवाहा, गड़रिया) के लिए लैटिन शब्द है जिसका आरंभ विद्वान तीसरी ई.पू. से मानते हुए सिसली के कवि थियाँक्रिटीज का उल्लेख करते हैं। वर्जिल से आगे बढ़ती इस चरवाहा-प्रवृत्ति ने शेक्सपियर जैसे कवि-नाटककार तक को प्रभावित किया (ए हैंडबुक टु लिटरेचर, पृ. 342-43)। सूर में गोचारण प्रसंग को लेकर विद्वानों के विचारों में मतभेद है, पर प्रायः अधिकांश ने स्वीकारा है कि सूर में ब्रजमंडल अपने खुलेपन में उपस्थित है। गोधन यहाँ प्रमुख है और उससे जुड़े हुए अधिकांश प्रसंग अभिव्यक्ति पाते हैं। पर सब प्रसंगों को सूर कृष्ण के प्रति अनुराग भाव से संबद्ध कर प्रस्तुत करते हैं और इस सूरदास : कहाँ सुख ब्रज कौसौ संसार / 161
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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