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________________ हैं : संदेसो देवकी सौं कहियौ, हौं तौ धाइ तिहारे सुत की, मया करत ही रहियौ (3793)। यशोदा का वात्सल्य और राधा-गोपिकाओं का प्रेम-भाव वात्सल्य और शृंगार से होकर एक ही बिंदु पर पहुँचते हैं, जहाँ इनका पार्थक्य समाप्त हो जाता है। सूर जैसे महाकवि को किसी सुरक्षा की अपेक्षा नहीं और उन्होंने घनिष्ठ मिलन-चित्र और कुछ अतिरंजित दृश्य भी बनाए हैं, विशेषतया वियोग के, पर विचारणीय यह कि कवि का प्रयोजन उदात्त भूमि पर पहुँचता है, जिसे प्रेमलक्षणा भक्ति कहा गया। मैनेजर पांडेय के शब्दों में : 'सूरदास ने अपने काव्य में सौंदर्य-बोध के माध्यम से नैतिक मूल्यों के विकास का प्रयास किया है। सूरदास की सौंदर्य चेतना और नैतिक चेतना में कोई अंतराल नहीं है' (भक्ति आंदोलन और सूरदास का काव्य, पृ. 250)। सूर के काव्य का वैशिष्ट्य यह कि उसमें सौंदर्य के व्यापक आयाम हैं जहाँ प्रेम का पूर्ण परिपाक होता है, सामंती देहवाद का निषेध करता। जिस सहज मानुष भूमि पर सूर की गीतात्मकता संचरित होती है, वह संपूर्ण ब्रजमंडल को अपने भीतर समोए हुए है, और यह उनके काव्य का उल्लेखनीय लोक पक्ष है। कहा जा सकता है कि सूर के काव्य में कृषि-चरागाही सभ्यता का रागात्मक सन्निवेश हुआ है, जिसका प्रतिनिधित्व ब्रजमंडल करता है। यह विश्वसनीय दृश्यांकन सूर के काव्य का लोकपक्ष है, जिस ओर ध्यान दिया जाना चाहिए। जीवन-यथार्थ के दयनीय दृश्य यहाँ कम हैं, जो बात जायसी के लिए भी कही जा सकती है। पर एक जनपदीय लोकजीवन अपने संस्कार, उत्सव, व्यवहार, परंपरा, राग-रंग के साथ यहाँ उपस्थित है, इसे ही सूर के लोक-चित्रण के रूप में स्वीकारना होगा। संकेतों में यथार्थ की स्थितियाँ भी हैं, पर उन पर बल न देकर, यदि सूर के काव्य में ब्रजमंडल की उपस्थिति को उसकी रागात्मकता में देखा जाय तो अधिक उचित होगा। पशु-पालन, गो-चारण, वृंदावन, माखन-लीला, वंशी, यमुना-तट विहार सब ब्रजमंडल की किसानी-चरागाही संस्कृति का दृश्य उपस्थित करते हैं। इतने विस्तार से ये दृश्य वहाँ भी कठिनाई से मिलेंगे, जिसे 'पैस्टोरल काव्य' कहा जाता है और जहाँ वर्णनात्मकता की सुविधा भी है। रमेशकुन्तल मेघ ने मत व्यक्त किया है कि गो-चारण वाली इस यूटोपिया के लिए यथार्थ-संदर्भ मिलने का कार्य सरल नहीं था। उनका विचार है कि 'सूर ने अनेक प्रसंगों में सामंतों का विलासी संसार भी कृष्णमय करके चित्रित किया है। तथापि मथुरा के पवित्र सेक्टर में कीर्तन-सेवा करने वाले सूरदास का असली संसार ग्रामीणों का सहज दैनिक संसार था' (मन खंजन किनके, पृ. 124)। सूर लोकउपादानों से अपनी सौंदर्य-दृष्टि रचते हैं, इसलिए उनका काव्य नागरिक सौंदर्य के आभिजात्य का निषेध करता है। अलंकरण के स्थान पर यहाँ सहजमयता है, और जीवन की निर्बध भूमि देखी जा सकती है। गोपिकाएँ मथुरा की चतुर नगर नवेलियों पर व्यंग्य करती हुई, वहाँ के लोगों को रस-लंपट कहती हैं, भ्रमर से उनकी तुलना करते हुए स्वयं को सहज-सरल कहती हैं। वे अपने प्रेम मार्ग के विषय में 160 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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